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उमास्वातिकृत प्रशमरतिप्रकरण एवं उसकी तत्त्वार्थसूत्र से तुलना
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राज्य में विक्रम संवत् 1185 (ई. 1128) में रची गई थी (श्री हरिभद्राचार्यैः रचितं प्रशमरतिविवरणं किंचित् । अणहिलपाटकनगरे श्रीमज्जयसिंहदेवनृपराज्ये । बाणवसुरुद्रसंख्ये विक्रमतो वत्सरे व्रजति ।) टीका अपने आप में सुस्पष्ट, संक्षिप्त, सरल तथा आगमानुसारिणी है । प्रशस्ति में इन हरिभद्र के पूर्व अनेक टीकाएँ हुई, ऐसा संकेत मिलता है (परिभाव्य वृद्धटीकाः सुखबोधार्थ समासेन)।
दूसरी टीका अवचूरि के रूप में है, जिसका कर्ता अज्ञात है। किन्तु अवचूरि के अन्त में प्रदत्त 'धनमिव जयमनुभवति' वाक्यांश से ऐसा प्रतीत होता है कि इस अवचूरि के कर्ता धनञ्जय (धनम्+जय) हैं । ये धनञ्जय कौन से हैं, इस सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता । अवचूरि में यथावश्यक शब्दों का व्याख्यान किया गया है। प्रशमरतिप्रकरण का संक्षिप्त परिचय .
प्रशमरतिप्रकरण की रचना का उद्देश्य वाचक उमास्वाति ने प्रशमरति में स्थैर्य स्थापित करना बताया है- 'प्रशमरतिस्थैर्यार्थ वक्ष्ये जिनशासनात् किंचित् ।' (कारिका 2) वाचक उमास्वाति के इस कथन से ग्रन्थ के अनुबन्ध का तो बोध होता ही है, किन्तु इसके साथ ही दो अन्य तथ्य भी स्पष्ट होते हैं- 1. इस ग्रन्थ का आधार जिनशासन अर्थात् जिनोपदिष्ट आगम वचन हैं । यह कोई काल्पनिक कृति नहीं है । 2. प्रशम अर्थात् वैराग्य के प्रति रुचि में उमास्वाति को उस समय शिथिलता दृष्टिगोचर हुई होगी, अतः उसके प्रति साधु-साध्वियों एवं जनमानस को दृढ़ बनाने के लिए उमास्वाति ने यह ग्रन्थ रचा होगा। इन दोनों तथ्यों में से प्रथम के द्वारा इस ग्रन्थ की प्रामाणिकता सिद्ध होती है तथा दूसरे तथ्य के द्वारा ग्रन्थ की उपयोगिता विदित होती है । ग्रन्थ का नाम 'प्रशमरति' है । 'प्रशम' का अर्थ टीकाकार हरिभद्र ने राग-द्वेष से रहित होना अथवा वैराग्य किया है। 'रति' का अर्थ उन्होंने शक्ति अथवा प्रीति किया है (तत्र वैराग्यलक्षणे प्रशमे रतिः शक्तिः प्रीतिः तस्यां स्थैर्य निश्चलता)। इस ग्रन्थ में उमास्वाति ने वैराग्य या कषाय-विजय रूप प्रशम के प्रति रुचि उत्पन्न करने एवं उस रुचि को निश्चल बनाने का प्रयास किया है । वैराग्य के पर्यायवचनों में उमास्वाति ने माध्यस्थ्य, विरागता, शान्ति,