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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
उन पर संथारा करने का विधान है। आचारांगसूत्र में भक्तप्रत्याख्यान आदि त्रिविध मरणों के अतिरिक्त वैहायसमरण को भी उचित बतलाया गया है, जिसके अनुसार संकटापन्न स्थिति आने पर कोई साधु संयम की रक्षा हेतु प्राणत्याग कर देता है। सयंम मार्ग पर दृढ़ रहकर अकस्मात् मृत्यु का वरण करने वाला साधु एक प्रकार से हितकर, सुखकर, कालोपयुक्त एवं निःश्रेयस्कर मरण मरता है। प्रकीर्णकों में वैहायसमरण की उपेक्षा की गई है तथा भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनी एवं पादोपगमन मरणों का ही प्रतिपादित किया गया है। ___ समाधिमरण का निरूपण भगवती आराधना एवं मूलाचार में भी हुआ है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन के अनुसार प्रकीर्णकों की गाथाएं ही भगवती आराधना एवं मूलाचार में आई हैं। मैं इनके पूर्वापर होने की चर्चा में न जाकर इतना ही कहूँगा कि समाधिमरण के प्रतिपादन की दृष्टि से यापनीय परम्परा के ये दोनों ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं।
प्रकीर्णक साहित्य पर दृष्टिपात करने के अनन्तर ज्ञात होता है कि उसमें सर्वत्र पंडितमरण, अभ्युद्यतमरण किंवा समाधिमरण से मरने की प्रेरणा दी गई है। सर्वत्र यह ध्वनि गूंजती हैं
इक्कं पंडियमरणं छिण्णइ जाईसयाई बहुयाइं।
तं मरणं मरियव्वं जेण मओ सुम्मओ होई ॥" अर्थात् एक पंडितमरण सैंकड़ों जन्मों का बंधन काट देता है, इसलिए उस मरण से मरना चाहिए, जिससे मरना सार्थक हो जाय । मरण उसी का सार्थक है जो पंडितमरण से देह त्याग करता है। इसके लिए पर्याप्त तैयारी अथवा तत्परता की आवश्यकता होती है, इसलिए इस मरण को अभ्युद्यतमरण कहा गया है । इस मरण के समय चित्त में समाधि रहती है, साधक आत्मा एवं शरीर में भिन्नता का अनुभव कर तीव्र वेदना काल में भी शान्त एवं अनाकुल रहता है, इसलिए इसे समाधिमरण कहते हैं। यह मरण पण्डा अर्थात् सद्-असद् विवेकिनी बुद्धि से सम्पन्न किंवा सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न संयती ही कर सकता है, इसलिए इस मरण को पण्डितमरण कहते हैं। प्रकीर्णकों मे ये तीनों शब्द एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं। ज्ञानपूर्वक मरने वाला एक उच्छ्वास मात्र काल में उतने कर्मों को क्षय कर देता