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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे।
मित्ती मे सव्व भूएसु, वेर मज्झं न केणइ।।" महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक में इस गाथा की दूसरी पंक्ति इस प्रकार है- 'आसवे वोसिरित्ताणं समाहिं पडिसंधए' अर्थात् मैं आस्रवों को त्यागकर समाधि प्रतिसंधान करता हूँ। 6.आहार,शरीर एवं उपधि का त्याग
वैसे तो संलेखना के बाह्य भेद में शरीर को कृश करने का उल्लेख आ गया है, किन्तु मरण संलेखनापूर्वक हो या बिना संलेखना के, मरणकाल उपस्थित होने पर चारों प्रकार के आहारों का त्याग कर दिया जाता है। भक्तपरिज्ञामरण में अवश्य प्रारम्भ में त्रिविध आहार का त्याग किया जाता है, किन्तु बाद में चारों आहारों का त्याग कर दिया जाता है। जब देह छूटने का समय एकदम नजदीक है, तब आहार करने से क्या लाभ? आहार के लिए कहा गया है कि आहार के कारण से मत्स्य सातवीं नरक में जाते हैं, इसलिए सचित्त आहार की तो साधक मन से भी कामना न करे। __ आहार के सम्बन्ध में एक बात ध्यातव्य है कि समाधिमरण से मरने वाले साधक के (ओजाहार एवं) रोमाहार तो चालू ही रहता है, केवल कवलाहार का ही त्याग किया जाता है। (ओजाहार तो सम्पूर्ण शरीर के द्वारा ग्रहण किया जाता है तथा) रोमाहार शरीर के रोमों के माध्यम से ग्रहण किया जाता है। कवलाहार के रूप में जिस आहार का त्याग किया जाता है उसमें अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों का ग्रहण हो जाता है। ___ शरीर के साथ भिन्नता का अनुभव करना शरीर का त्याग है। शरीर के साथ ममत्व छोड़ने के पश्चात् ही यह संभव है कि शरीर से आत्मा को भिन्न अनुभव किया जा सके। 'अन्नं इमं सरीरं अन्नो जीव त्ति' का स्मरण एवं अनुभव सदैव रहना चाहिए।
उपधि दो प्रकार की होती है-बाह्य और आभ्यन्तर। परिग्रह बाह्य उपधि है तथा कषाय भाव आभ्यन्तर उपधि है। इन दोनों प्रकार की उपधियों का त्याग भी अनिवार्य है। ये दोनों उपधियां बाह्य एवं आभ्यन्तर परिग्रह की द्योतक हैं।