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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
सुप्रत्याख्यान होता है तथा अज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान कहलाता है।
इन षडावश्यकों का आचरण व्यक्ति को मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी, अव्रती से व्रती, प्रमत्त से अप्रमत्त, सकषाय से निष्कषाय और अशुभ योगी से शुभ योगी बना सकता है। __आवश्यक किं वा प्रतिक्रमण के पाठों एवं विधि में यथावश्यक विकास होता रहा है । आवश्यक सूत्र का अवलोकन करने पर विदित होता है कि यह संक्षिप्त एवं सारगर्भित है तथा इसमें श्रमण आवश्यक का ही प्रतिपादन है, श्रावक प्रतिक्रमण का नहीं । आवश्यक सूत्र के 6 अध्ययनों में क्रमशः निम्नांकित पाठ प्राप्त होते हैंसामायिक आवश्यक- करेमि भंते, इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए का पाठ, तस्सउत्तरीकरणेणं का पाठ, ज्ञान के अतिचार (आगमे तिविहे का पाठ) आदि। चतुर्विशतिस्तव-लोगस्स का पाठ। इस पाठ में लोगस्स उज्जोयगरे से लेकर 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' तक सातों पद्य हैं। वन्दन-इच्छामि खमासमणो का पाठ। प्रतिक्रमण- चत्तारि मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिउं, इरियावहियाए, शय्यासूत्र (शयन संबंधी दोष-निवृत्ति का पाठ), भिक्षादोष निवृत्ति सूत्र (पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए), स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना सूत्र, तैंतीस बोल का पाठ (एक से लेकर तैंतीस की संख्या में विभिन्न दोषों का प्रतिक्रमण), निर्ग्रन्थ प्रवचन का पाठ (नमो चउवीसाए तित्थयराणं आदि)। कायोत्सर्ग- कायोत्सर्ग पाठ। प्रत्याख्यान- दशविध प्रत्याख्यान का पाठ।
श्रमण-प्रतिक्रमण में पाँच समिति, तीन गुप्ति, पंच महाव्रत, रात्रि भोजन त्याग, अठारह पापस्थान, पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय की विराधना सहित- सबके 'मिच्छा मि दुक्कडं' के पाठ दशवैकालिक सूत्र आदि आगमों के आधार से जोड़े गए हैं। इसी प्रकार बड़ी संलेखना का पाठ, दर्शन सम्यक्त्व का पाठ, आयरिय उवज्झाए आदि दोहे, खामेमि सब्वे जीवा, चौरासी लाख जीवयोनि का पाठ, नमोत्थुणं आदि भी