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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
उत्कीर्तन करने से अपने दोषों को दूर करने की भावना बलवती बनती है और यह आत्मविश्वास जागता है कि जिस प्रकार तीर्थंकर दोषमुक्त बने हैं उस प्रकार मैं भी दोषमुक्त बन सकता हूँ।
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तीसरे ‘वन्दना' आवश्यक में 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ से मूल गुण एवं उत्तरगुणों के धारक, संयमी गुरुदेव से संयम यात्रा की कुशल क्षेम पूछी जाती है तथा उन्हें द्वादश आवर्तनों के माध्यम से भावपूर्ण वन्दन किया जाता है। गुरु की शरण को साधक दोष-मुक्त बनने का उत्तम साधनं समझता है। वह अपने द्वारा क्रोधादि के कारण हुई आशातना के लिए क्षमायाचना करता है। इसे अनुयोगद्वारसूत्र में ‘गुणवत्प्रतिपत्ति’ आवश्यक कहा गया है । गुणवत्प्रतिपत्ति का अर्थ है गुणवानों के प्रति आदरभाव । गुणवानों के प्रति आदरभाव आत्मविकास में सहायक है ।
चतुर्थ 'प्रतिक्रमण' आवश्यक के पूर्व साधक की दोष - निवारण हेतु भूमिका तैयार हो जाती है । उसका मन अपने दोषों के निवारण हेतु अथवा कहें प्रतिक्रमण हेतु व्याकुल हो जाता है और वह फिर अपने एक-एक अतिचार के लिए कहता हैमिच्छामि दुक्कडं अर्थात् मेरा दुष्कृत गलत था, मिथ्या था, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था । इसीलिए अनुयोगद्वारसूत्र में प्रतिक्रमण आवश्यक को ‘स्खलितनिन्दा’ कहा गया है । प्रतिक्रमणकर्ता अपनी भूल की निन्दना कर चिन्तन करता है कि मैं पुनः विभाव से स्वभाव में, दोष से निर्दोषता में, अतिक्रमण से प्रतिक्रमण में आना चाहता हूँ ।
प्रतिक्रमणकर्ता को यह ज्ञात होता है कि संसार में चार ही मंगल हैं अरिहंत 2. सिद्ध 3. साधु और 4. केवलिप्रज्ञप्त धर्म । इन चार के अतिरिक्त धन-सम्पदा-परिजन आदि अशरण भूत हैं । इनके प्रति ममत्व त्याज्य है । इसलिए प्रतिक्रमण का साधक 18 प्रकार के पापस्थानों से विरत होता है और आजीविका सम्बन्धी 15 कर्मादानों को छोड़ने का संकल्प करता है । वह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह से अपने सामर्थ्यानुसार विरति अथवा परिमाण करता है T जीवन चलाने के लिए वह भोगोपभोग और दिशा का भी परिमाण करता है अपध्यान के निरर्थंक आचरण, प्रमादपूर्वक आचरण, हिंसा को बढ़ावा, पाप कर्म के उपदेश आदि से अपने को पृथक् रखता है । वह मन, वचन और काया के दुष्प्रणिधान को त्यागने का संकल्प करके समभाव का आचरण करता है । वह
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