________________
प्रतिक्रमण
383
हों, इस लक्ष्य से भावपूर्वक करने पर वे विशेष फलदायिनी होती हैं, किन्तु उन्हें औपचारिकतावश करने पर अपेक्षित लाभ नहीं मिलता।
प्रतिक्रमण एक आवश्यक है । आत्मशुद्धि के लिए जो अवश्य करणीय है, उसे आवश्यक कहा गया है । आवश्यक छह माने गये हैं- 1. सामायिक (सावद्ययोग विरति) 2. चतुर्विंशतिस्तव (उत्कीर्तन) 3. वन्दना (गुणवत्प्रतिपत्ति) 4. प्रतिक्रमण (स्खलित निन्दना) 5. कायोत्सर्ग (व्रण चिकित्सा) 6. प्रत्याख्यान (गुणधारणा) । इन छह आवश्यकों में प्रतिक्रमण का प्राधान्य होने से षडावश्यकों को प्रतिक्रमण' शब्द से अभिहित किया जाता है। अतः प्रतिक्रमण में इन छहों आवश्यकों का समावेश किया जाता है।
प्रथम 'सामायिक' आवश्यक में सावधयोग का त्याग किया जाता है तथा आत्मा को उत्कृष्ट बनाने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, विशेष आत्मशुद्धि के लिए, शल्यरहित बनाने के लिए, पाप-कर्मों का क्षय करने के लिए कायोत्सर्ग भी किया जाता है। इस कायोत्सर्ग में देहाभिमान का उत्सर्ग करते हुए आत्म-दोषों का आलोचन किया जाता है। उन्हें ध्यान में रहकर देखा जाता है। दोषों का निरीक्षण करके ही उनका निवारण किया जा सकता है । श्रावक इस ध्यानमुद्रा में रहकर प्रतिक्रमण में सम्यक्त्व, ज्ञान, बारह व्रत, कर्मादान, संलेखना आदि से सम्बद्ध 99 अतिचारों का आलोचन करता है । श्रमण-प्रतिक्रमण में कुल 125 अतिचारों का आलोचन किया जाता है। देहादि से आसक्ति रहते हुए आत्मदोषों का अवलोकन इतना सरल नहीं होता, इसलिए देह के प्रति ममत्व अथवा देहाध्यास का त्याग करके निष्पक्ष व तटस्थ होकर आत्मकृत अतिचारों का आलोचन किया जाता है। सभी अतिचारों के पाठ पर ध्यान दिये जाने से यह ज्ञात होता है कि मेरे व्रतों में कौन सा अतिचार लगा और कौन सा नहीं। यह आलोचन सूक्ष्मस्तर पर शान्तभाव से होना चाहिए, ताकि अपना दोष पकड़ में आ सके । दूसरे शब्दों में कहें तो वर्तमान में निर्दोष रहकर ही अतीतकाल के दोषों का निरीक्षण या अन्वेषण किया जा सकता है। इसलिए सावधयोग से विरति रूप सामायिक को प्रथम आवश्यक स्वीकार किया गया है।
दूसरे आवश्यक में 'लोगस्स' पाठ के द्वारा 24 तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है। तीर्थकर दोषमुक्त हैं । अतः अपने दोष ध्यान में आने के पश्चात् दोष-मुक्त का