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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
सहायक होते हैं। प्राणातिपातविरमण आदि बारह व्रतों में यह प्रतिक्रमण दृढ़ बनाता है। यह अरिहन्त, सिद्ध को देव, पंच महाव्रतधारी को गुरु एवं जिनप्रज्ञप्त को धर्म स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता है। आगम का स्वाध्याय निर्दोष रूप से करने हेतु प्रेरित करता है। संलेखना स्वीकार करने एवं उसका निर्दोष पालन करने की प्रेरणा हमें प्रतिक्रमण के पाठों से मिलती है। ___ प्रतिक्रमण का जैन परम्परा में शाश्वत महत्त्व होते हुए भी इसके पाठों को लेकर थोड़ा-थोड़ा भेद रहा है । श्वेताम्बर श्रमण प्रतिक्रमण का आधार आवश्यक सूत्र है तथा श्रावक प्रतिक्रमण में बारह व्रतों के अतिचारों का आधार उपासकदशांग सूत्र रहा है । श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक तपागच्छ, खरतरगच्छ आदि परम्पराओं में बारह व्रतों की आलोचना के लिए 'वंदित्तु सूत्र' का महत्त्वपूर्ण स्थान है जो आचार्यों द्वारा प्राकृत के 50 पद्यों में निबद्ध है। इसके अतिरिक्त सकलार्हत् स्तोत्र, अजित-शांति स्तवन आदि भक्तिपरक स्तुतियाँ बोली जाती हैं। इनसे पूर्व खरतरगच्छ के महान् आचार्य जिनप्रभसूरि (13वीं-14वीं शती) द्वारा रचित विधिमार्गप्रपा नामक ग्रन्थ में दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के स्वरूप, विधि आदि का निरूपण किया गया है।
उल्लेखनीय है कि श्वेताम्बर स्थानकवासी, मूर्तिपूजक और तेरांपथ के प्रतिक्रमण में करेमि भंते, इच्छामि खमासमणो, तस्सउत्तरी, लोगस्स, नमोत्थुणं आदि अनेक पाठ समान हैं। प्रतिक्रमण को उपयोगी एवं रोचक बनाने की दृष्टि से समय-समय पर प्रयास होते रहे हैं। स्थानकवासी प्रतिक्रमण में भाव वन्दना और उसमें तिलोकऋषि जी के सवैया का संयोजन इसी के उदाहरण हैं। तेरापंथ सम्प्रदाय के प्रतिक्रमण पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होता है कि इस परम्परा के श्रावक प्रतिक्रमण में व्रतों के अतिचारों के पाठ आचार्य श्री तुलसी जी के द्वारा रचित गेय हिन्दी पद्यों में निबद्ध किए गये हैं और प्राकृत पाठ हटा दिये गये हैं।
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रतिक्रमण किये जाने की परम्परा है। वट्टकेर विरचित मूलाचार, आशाधरकृत अनगार धर्मामृत आदि ग्रन्थों में षडावश्यकों का विस्तार से निरूपण है। मूलाचार में प्रतिक्रमण के सात प्रकार प्रतिपादित हैं।- 1. दैवसिक 2. रात्रिक 3. ईर्यापथ- आहार, गुरुवन्दन, शौच आदि जाते समय लगे अतिचारों से