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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
नहीं होता है । प्रतिक्रमण आत्मसुधार का अमोघ उपाय है । इसके माध्यम से साधक अपनी साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है। भूल सुधार करके ही कोई लक्ष्य को सिद्ध कर पाता है । एक व्यापारी भी यदि अपनी भूल का सुधार नहीं करता है, बार-बार उस भूल की पुनरावृत्ति करता रहता है तो वह कभी भी एक सफल व्यापारी नहीं हो सकता । इसी प्रकार कोई डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, प्रोफेसर अपनी व्यवसायगत भूलों की समीक्षा कर उनको नहीं सुधारता है तो वह भी अपने क्षेत्र में विकास नहीं कर पाता है । इसी तरह अध्यात्म के क्षेत्र में भी विकास तभी सम्भव है जब अपने द्वारा हुए दोष युक्त अतिक्रमण का तत्काल प्रतिक्रमण होने लगे । तत्काल प्रतिक्रमण न कर सकें तो सायंकाल एवं प्रातःकाल प्रतिक्रमण करके आत्मसुधार कर ही लेना चाहिए।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर ग्रन्थों में प्रतिक्रमण के लिए तीन चरण प्राप्त होते हैं1. आलोचन 2. निन्दना 3. गर्दा । सर्वप्रथम तो अपने दोष हमें दिखाई दें यह आवश्यक है। अपने दोष देखना ही आलोचन है, दोष दृष्टिगत होने पर उसे बुरा समझना उसकी 'निन्दना' है तथा जब वह दोष गुरु के समक्ष प्रकट किया जाता है तो उसे 'गर्हा' कहा जाता है। इसके लिए योग्य गुरु की आवश्यकता होती है। जो शिष्य के द्वारा प्रकट दोष का प्रचार न करे तथा प्रायश्चित्तादि से उसकी शुद्धि करने का प्रयत्न करे वह योग्य गुरु होता है। प्रायश्चित्त के द्वारा व्यक्ति दोष रहित बन सकता है तथा पुनः दोष न करने का संकल्प भी प्रायश्चित्त के द्वारा दृढ़ होता है।
प्रतिक्रमण सीखने-सिखाने पर स्थानकवासी परम्परा में विशेष बल दिया जाता है । शिक्षण बोर्ड, धार्मिक पाठशाला, स्वाध्याय शिविर आदि के माध्यम से स्थानकवासी समाज धार्मिक ज्ञान-वृद्धि के क्षेत्र में निरन्तर आगे बढ़ रहा है । समाज में सामायिक और स्वाध्याय की सतत प्रेरणा का ही यह सुफल है कि अनेक युवक-युवतियाँ, किशोर-किशोरियाँ, बालक-बालिकाएँ सामायिक, प्रतिक्रमण, 25 बोल आदि सीख रहे हैं। समाज में अनेक धार्मिक प्रतियोगी परीक्षाएँ भी ज्ञान-वृद्धि में सहायक हुई हैं । यह ज्ञान कहीं भार न बन जाये, इसके लिए आवश्यक है उसका जीवन में आचरणपरक प्रभाव । आचरण भी दो प्रकार का हो सकता है - 1. द्रव्य क्रियाओं के रूप में 2. अपने दोष दूर करने के रूप में । प्रतिक्रमण अपने दोष दूर करने की शिक्षा देता है। द्रव्य क्रियाएँ भी संवर के साथ निर्जरा में सहायक