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प्रतिक्रमण
आत्मविशुद्धि के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए भूलों का परिमार्जन आवश्यक है तथा पुनः भूल न दोहराने का संकल्प भी अनिवार्य है। जैनदर्शन में इस प्रक्रिया को षड् आवश्यकों के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सामायिक, चतुर्विंशतिस्तवन आदि षड् आवश्यकों में प्रतिक्रमण की प्रधानता होने से इन षडावश्यकों की प्रतिक्रमण' नाम से अधिक प्रसिद्धि है। संयम अथवा विरति के मार्ग पर चलने वाले साधक से जब भी कोई भूल हो जाए तो वह नियमित रूप से प्रातःकाल एवं सायंकाल उसका समभावपूर्वक निरीक्षण कर उसकी निन्दना करता हुआ पुनः संयममार्ग पर अपने आचरण को सुदृढ़ कर सकता है । साधक के लिए सतत सजगता आवश्यक है । अतः उसके द्वारा अवश्य करणीय होने से सामायिक, चतुर्विंशतिस्तवन, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान को आवश्यक कहा गया है । भूल को भूल अथवा दोष को दोष जानकर ही उसका परिहार किया जा सकता है एवं गुणों का संवर्धन किया जा सकता है । जैनदर्शन में आत्मसुधार का एक सुन्दर उपाय है- प्रतिक्रमण ।
जीव का स्वभाव से विभाव में जाना अतिक्रमण है तथा पुनः स्वभाव में स्थित होना प्रतिक्रमण है। जीव का दोष रहित जो शुद्ध स्वरूप है, वह उसका स्वभाव है तथा विकार एवं दोषों से युक्त अवस्था विभाव है। जीव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय एवं अशुभयोग के कारण स्वभाव से विभाव में गमन करता रहता है, उसे पुनः सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, कषायविजय एवं शुभयोग में लाना प्रतिक्रमण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जीव का औदयिक भाव से पुनः क्षायोपशमिक भाव में आना प्रतिक्रमण है। यह प्रतिक्रमण का पारमार्थिक स्वरूप है। इसके अनुसार जब तक आत्मा पूर्ण शुद्ध नहीं होती तब तक प्रतिक्रमण की आवश्यकता बनी रहती है।
आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र के तृतीय प्रकाश की स्वोपज्ञवृत्ति में प्रतिक्रमण का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है-शुभयोगेभ्योऽशुभयोगान्तरं क्रान्तस्य शुभेषु एवक्रमणात् प्रतीपंक्रमणम्( प्रतिक्रमणम्) अर्थात् शुभयोग से अशुभयोग में गए हुए जीव का पुनः शुभ योग में आना प्रतिक्रमण है। बिना शुभभावों के शुभ योग में आना अशक्य है, अतः भावशुद्धि ही प्रतिक्रमण का प्रयोजन है। इसलिए औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव में आना अथवा विभाव से स्वभाव में आना वास्तविक