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प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
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आहार, शरीर एवं उपधि का त्याग तीन प्रकार से अर्थात् मन वचन एवं काय योग से हो, यथा
सव्वं पि असणं पाणं चउव्विहं जो य बाहिरो उवही। अब्भिंतरं च उवहिं सव्वं तिविहेण वोसिरे।। उवही सरीरगं चेव आहारं च चउव्विहं।
मणसा वय काएणं वोसिरामि त्ति भावओ। अर्थात् चतुर्विध अशन-पानादि, समस्त बाह्य उपधि एवं सम्पूर्ण आभ्यन्तर उपधि का मन, वचन एवं काया से भावपूर्वक त्याग करना चाहिए।
वर्तमान में सोते समय जो सागारी संथारा किया जाता है उसमें इन तीनों के त्याग का उल्लेख रहता है, यथा
आहार शरीर उपधि पचखू पाप अठारह।
मरण पाऊँ तो वोसिरे, जीऊँ तो आगार।। 7. भावनाओं द्वारा दृढीकरण __ वैराग्यपरक चिन्तन एवं भावनाओं से चित्त में समाधि सुदृढ़ होती है। अनित्य, अशरण आदि द्वादश भावनाएं भी इसी की अंग हैं। अभयदेवसूरि ने आराधना प्रकरण में एकत्व, अनित्यत्व, अशुचित्व और अन्यत्व का नामतः उल्लेख करके प्रभृति शब्द से अन्य भावनाओं की ओर संकेत किया है। इन भावनाओं की पुष्टि में महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा आदि प्रकीर्णकों से भी अनेक गाथाएँ उपलब्ध हैं। यथा
एगो मे सासओ अप्पा नाणदंसणसंजुओ।
सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा।। अर्थात् ज्ञान एवं दर्शन से युक्त शाश्वत आत्मा ही मेरी है और शेष सब वस्तुएं संयोग लक्षण वाली हैं तथा बाहरी हैं। उनसे आत्मा का संयोग सम्बन्ध है, नित्य सम्बन्ध नहीं है। इसमें एकत्व एवं अन्यत्व दोनों भावनाओं का भाव निहित है। जब समाधिमरण के समय अत्यन्त वेदना हो तो उसे भी इस प्रकार की भावनाओं के आलम्बन से सहज ही सहन किया जा सकता है। साधक सोचता है कि मैंने अनन्तबार नरकादि गतियों में इससे भी तीव्र वेदना सहन की है। जो जैसा कर्म