________________
362
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
त्याग कराया जाता है, किन्तु इससे पूर्व समाधि-पान कराने का उल्लेख है। समाधि-पान एक ऐसा दूध है जिसमें इलायची, तेज, नागकेसर, तमालपत्र एवं शक्कर मिली रहती है। उसे उबालकर ठंडा करके पिलाया जाता है जिससे शरीर में शान्ति बनी रहती है। इसके अनन्तर फोफला आदि द्रव्य देकर विरेचन किया जाता है, इससे पेट की अग्नि का कुछ शमन भी हो जाता है। चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करने के साथ ही वह आचार्य, उपाध्याय, साधर्मिक, कुल एवं समस्त जीवों आदि से क्षमायाचना करता है। वह सबको आत्मिक शुद्धि के लिए क्षमादान भी करता है। इस प्रकार वंदना, क्षमणा, गर्दा आदि से सैकड़ों भवों में अर्जित कर्मों को वह क्षणभर में निर्जरित कर देता है। इसके लिए मृगावती रानी का उदाहरण दिया गया है।” साधु को भी गणाधिपति मिथ्यात्व, शल्य, कषाय आदि के त्याग की प्रेरणा करता हुआ भक्तपरिज्ञामरण में आरूढ़ करता है। (2) इंगिनीमरण
यह भक्तपरिज्ञामरण से विशिष्ट है। भक्तपरिज्ञा में की जाने वाली साधना-विधि तो इसमें आ ही जाती है, किन्तु इसमें साधक दूसरों से किसी प्रकार की सेवा न लेकर संथारा ग्रहण करने के अनन्तर स्वयं ही आकुञ्चन, प्रसारण एवं उच्चार आदि की क्रियाएं करता है।यथा
सयमेव अप्पणा सो करेइ आउंटणाइकिरियाओ।
उच्चाराइ विगिंचइ एयं च सम्मं निरुवसग्गे।। यदि देवों, मनुष्यों या तिर्यञ्चों के द्वारा किसी प्रकार का उपसर्ग भी उपस्थित किया जाय तो वह निर्भय होकर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करता। उन उपसर्गों से उसमें आकुलता भी नहीं होती तथा वह उन्हें दूर करने का भी प्रयास नहीं करता है। यदि किन्नर किंपुरुष देवों की कन्याएं उसे चाहें तो भी वह विचलित नहीं होता है और न ही किसी ऋषि का आश्चर्य करता है। वह अन्तः एवं बाह्य शुद्धि करके एक स्थान पर तृणों का संस्तारक बिछाता है तथा अरहन्त को प्रणाम करते हुए विशुद्ध मन से आलोचना करता हुआ चारों आहारों का त्याग करता है। द्रव्य एवं भाव से संलेखना करने के अनन्तर ही वह संस्तारक ग्रहण करता है। इस इंगिणीमरण से मरण करने वाला जीव प्रथम संहनन अर्थात् वज्रऋषभ नाराच