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प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
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संभव है। अपनी आलोचना स्वंय भी की जा सकती है तथा गुरु के पास जाकर भी की जा सकती है। गुरुजनों के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करने पर हलकेपन का अनुभव होता है। गुरुजन भी दोषों को छोड़ने की प्रेरणा देकर आत्मा का महत्त्व बतलाते हैं। उस आलोचना के द्वारा प्रमुख रूप से साधक जिन दोषों की गर्हा करता है, वे हैं - सात भय, आठ मद, तीन गारव, तीन शल्य, चार कषाय, मिथ्यात्व, असंयम और ममत्व | " सात प्रकार के भयों में इहलोक, भय, परलोकभय, आदान भय, अकस्मात् भय, अपयश भय, आजीविका भय और मरण भय समाविष्ट हैं समाधिमरण का साधक समस्त भयों को जीतकर निर्भय हो जाता है । मद (घमंड) आठ प्रकार का है - जातिमद, कुलमद, बलमद, रूपमद, तपमद, लाभमद, श्रुतमद और ऐश्वर्य मद । गारव तीन हैं- ऋद्धिगारव, रस गारव और साता गारव । इन तीनों की गुरुता को समाधिमरण का इच्छुक साधक त्याग देता है। तीन शल्यों में माया शल्य, मिथ्यादर्शन शल्य एवं निदान शल्य की गणना होती है। ये तीनों शल्य त्यागकर साधक निःशल्य हो जाता है। साधना में ये तीनों कांटे की तरह बाधक हैं। क्रोध, मान, माया एवं लोभ कषाय के त्याग का प्रयास तब तक चलता रहता है जब तक वीतराग अवस्था प्राप्त न हो जाय । मिथ्यात्व, असंयम एवं ममत्व का त्याग किए बिना भी साधना लक्ष्य की ओर नहीं बढ़ती है। मिथ्यात्व का त्याग तो सबसे अधिक महत्त्व रखता है, क्योंकि इसको त्यागे बिना किसी भी दोष का त्याग सर्वांश में नहीं हो सकता । असंयम अर्थात् अविरति का त्याग भी ऐसे साधक के लिए आवश्यक है। हिंसा, असत्य आदि से वह पूर्णतः विरत होता है । अन्त में वह अपने शरीर आदि के ममत्व का भी त्याग कर देता है । " आत्मा के निकट पहुँचने अथवा आत्मा में रमण करते हुए देहत्याग करने का यही तरीका है । "
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आत्मालोचन में अपने दोषों की निन्दा एवं गर्हा करके उनका प्रतिक्रमण भी किया जाता है, यथा
मूलगुणे उत्तरगुणे जे मे नाराहिया पमाएणं ।
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तमहं सव्वं निंदे पडिक्कमे आगमिस्साणं । । "
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प्रमाद के कारण मूलगुण एवं उत्तरगुणों की आराधना न की गई हो तो मैं उनकी निन्दा करता हूँ तथा भावी दोषों से भी प्रतिक्रमण करता हूँ। आहार आदि