________________
प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
31
संहनन से युक्त होता है। "
363
इंगिनीमरण का साधक इतना निर्भय एवं निराकुल हो जाता है कि यदि संसार के सारे पुद्गल भी दुःख में परिणत हो जायें तब भी उसे दुःखी नहीं कर सकते। वह धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान से आर्त एवं रौद्र ध्यान में नहीं आता है। स्वाध्याय एवं शुभध्यान ही उसके जीवन का अंग बन जाते हैं। मौन एवं अभिग्रह धारक उस आराधक से यदि देव एवं मनुष्य कुछ पूछे तो वह धर्मकथा कहता है । " (3) पादपोपगमनमरण
32
भक्तप्रत्याख्यान एवं इंगिनीमरण से भी यह मरण उत्कृष्ट है। इस मरण से मरने वाला साधक पादप के सूखे ठूंठ की तरह एक स्थान पर निश्चेष्ट पड़ा रहता है। वह किसी प्रकार हिलने-डुलने की भी क्रिया नहीं करता है । मरणसमाधि प्रकीर्णक में पादपोपगमन का लक्षण इस प्रकार दिया है
निच्चलनिप्पडिकम्मो निक्खिवएं जं जहिं वा अंगं । एयं पाओवगमं सनिहारिं वा अनीहारिं वा ।। "
33
अर्थात् निश्चल रूप में बिना प्रतिक्रिया के जहां जिस प्रकार अंग स्थिर करके जो मरण किया जाता है वह पादोपगमनमरण है। यह दो प्रकार का होता है- सनिहारी और अनिहारी । जब उपसर्ग के कारण मरण होता है तो उसे सनिहारी एवं बिना उपसर्ग के मरण होने पर उसे अनिहारी कहा जाता है, यथा
उवसग्गेण विजंसो साहरिओ कुणइ कालमण्णत्थ । तो भवियं नीहारिमियरं पुण निरुवसग्गम्मि ।। [L34
यह मरण भी प्रथम संहनन अर्थात् वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त जीव करता है। वीरभद्राचार्य के मत में संलेखना किया हुआ अथवा संलेखना न किया हुआ भी आत्मा पादोपगमनमरण करता है। " पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पति और त्रसों पर फेंक दिए या डाल दिए जाने पर भी साधक निश्चेष्ट बने रहते हैं । " पादोपगमनमरण करने वाले जीवों के अनेक उदाहरण आराधनापताका में दिए गए हैं।
मरणसमाधि प्रकीर्णक में चिलातीपुत्र, स्कन्धक शिष्यों, गजसुकुमाल आदि के समाधिमरण के जो उल्लेख हैं वे दिल दहला देने वाले हैं तथा समाधिमरण की