________________
प्रकीर्णक-साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
357
है जितने अज्ञानी जीव बहुत से करोड़ों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता।" इसलिए कर्म-निर्जरा की दृष्टि से पण्डितमरण अत्यन्त उपादेय है।
प्रकीर्णक-रचयिता आचार्यों की दृष्टि मे पंडितमरण साधना का उत्कृष्ट रूप है। इसके लिए जीवन में साधना के अभ्यास की आवश्यकता होती है। जो साधक अपने जीवन में योग-साधना का अभ्यास नहीं करते हैं, वे मरणकाल में परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। यही नहीं बहिर्मुखी वृत्तियों वाला, ज्ञानपूर्वक आचरण न करने वाला तथा पूर्व में साधना न किया हुआ जीव आराधना काल में अर्थात् समाधिमरण के अवसर पर विचलित हो जाता है। इसलिए मुक्ति रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अप्रमादी होकर निरन्तर सद्गुण सम्पन्न होने का प्रयत्न करना चाहिए। इसका अर्थ यह नहीं कि मरणकाल के उपस्थित होने पर कोई साधक अपने को बदल नहीं सकता। यद्यपि विशिष्ट साधक मरणकाल में भी अपने को बदल सकता है, किन्तु सामान्य साधकों को पर्याप्त समय एवं प्रतिबोध की आवश्यकता होती है। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक के रचयिता ने मृत्युकाल उपस्थित होने पर मिथ्यात्व का वमनकर सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए कामना की है तथा उन्हें धन्य कहा है जो इन्द्रिय-सुखों के अधीन न होकर मरणसमुद्घात के द्वारा मिथ्यात्व की निर्जरा कर देते हैं। यहाँ एक बात यह स्पष्ट हो जाती है कि साधुवेश अंगीकार कर लेने मात्र से प्रत्येक श्रमण सम्यक्त्वी नहीं हो जाता। जब तक वह बहिर्मुखी है, ऐन्द्रियक सुखों के अधीन एवं रसलोलुप है, जब तक शरीर के साथ वह ममत्व को उचित मानता है तब तक वह सम्यक्त्वी नहीं होता। सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यक् होता है तथा ज्ञान सम्यक् होने पर ही चारित्र एवं तप सम्यक् होते हैं। इन चारों को आराधना के चार स्कन्ध माना गया है। आराधना भी अभ्युद्यतमरण की तैयारी है। जो पंडितमरण पूर्वक मरते हैं वे आराधक कहलाते हैं तथा जो अज्ञानपूर्वक मरण करते हैं वे अनाराधक कहलाते हैं। दीर्घकाल तक पाँच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करने वाला मुनि भी यदि मृत्यु के समय विराधना करता है तो उसे धर्म का अनाराधक का जाता है तथा अत्यधिक मोही व्यक्ति भी यदि जीवन की सन्ध्यावेला में संयमी और अप्रमत्त हो जाता है तो उसे आराधक कहा जाता है। दूसरे शब्दों में जो समाधिपूर्वक मरता है वह आराधक एवं जो