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प्रकीर्णक - साहित्य में समाधिमरण की अवधारणा
मरा जाय। वह पंडितमरण भी तीन प्रकार का प्रतिपादित है - 1. भक्तपरिज्ञामरण, 2. इंगिनीमरण और 3. पादोपगमन या प्रायोग्यमरण । 21
(1 ) भक्तपरिज्ञामरण
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भक्तप्रत्याख्यान अथवा भक्तपरिज्ञामरण की विधि, स्वरूप एवं भेदों का विवेचन 'भक्तपरिज्ञा' प्रकीर्णक में तथा वीरभद्राचार्य की 'आराधनापताका' में विस्तार से मिलता है। भक्तपरिज्ञामरण के भेद किए गए हैं- 1. सविचार और 2. अविचार | समय रहते संलेखनापूर्वक पराक्रम के साथ जो भक्तपरिज्ञामरण है वह सविचार भक्तपरिज्ञामरण है तथा अल्पकाल रहने पर बिना शरीर संलेखना विधि के जो भक्तपरिज्ञामरण किया जाता है वह अविचार भक्तपरिज्ञामरण है। 2 भक्तप्रत्याख्यान शब्द से ऐसा लगता है कि इसमें मात्र अशन, पान, खादिम एवं स्वादिम रूप चार आहारों का त्याग किया जाता होगा, किन्तु ऐसा ही नहीं है। इसमें भी भीतरी शुद्धि अर्थात् आत्मिक शुद्धि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आहार का त्याग तो इसमें सागारी एवं अनागारी दोनों प्रकार से किया जाता है । प्रारम्भ में त्रिविध आहार का त्याग किया जाता है तथा बाद में यथास्थिति चौथे आहार 'पान' का भी त्याग कर दिया जाता है। इस मरण में गुरुजनों एवं केवलियों के प्रति विनय, श्रद्धा अथवा भक्ति भाव भी पाया जाता है, इसलिए भी इसका भक्तपरिज्ञा नाम सार्थक है। अब भक्तपरिज्ञामरण के दोनों प्रकारों पर विचार किया जा रहा है
(क) सविचार भक्त परिज्ञामरण
वीरभद्राचार्य ने सविचार भक्तपरिज्ञामरण के चार द्वार निरूपित किए हैं- 1. परिकर्म विधि 2. गणसंक्रमण 3. ममत्व-व्युच्छेद और 4. समाधिलाभ । परिकर्म विधि के भी उन्होंने ग्यारह प्रतिद्वार बतलाए हैं- 1. अर्ह 2. लिंग 3. शिक्षा 4. विनय 5. समाधि 6. अनियत विहार 7. परिणाम 8. त्याग 9. शीति 10. भावना और 11. संलेखना । यह भक्तपरिज्ञामरण वह साधक करता है जो संयम में हानि पहुँचाने वाली दुःसाध्य व्याधि से पीड़ित हो, जरा अवस्था से पीड़ित हो, देव - मनुष्य तिर्यञ्च आदि से उत्पन्न उपसर्ग आ गया हो, दुर्भिक्ष काल हो, मार्ग भटक गया हो, जंघाओं में चलने का सामर्थ्य न रहा हो, और जिसकी आंखें कमजोर हो गई हों। इस सविचार भक्तपरिज्ञामरण के लिए रजोहरण, अचेलकता, केशलोच आदि जो