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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
प्रदूषित नहीं करने का संकल्प लेना होगा। आधुनिक विज्ञान पर्यावरण के घटकों में प्रदूषण की चर्चा तब करता है जब वह प्रदूषण बृहत् स्तर पर जन-समुदाय या प्राणिसमुदाय को प्रभावित करता है, जबकि जैनदर्शन में एक व्यक्ति के द्वारा किए गए प्रदूषण को भी 'पाप' कहकर उसे त्याज्य प्रतिपादित किया गया है। आज मनुष्य न केवल भोगोपभोग के लिए, अपितु बिना प्रयोजन के भी पर्यावरण प्रदूषण में लगा हुआ है। शास्त्रकार ऐसे अनर्थदण्ड से भी बचने की प्रेरणा करते हैं।
जैनधर्म की समस्त साधना प्रदूषणों को दूर करने की साधना है। इसके द्वारा आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के प्रदूषणों पर विजय पायी जा सकती है।
वस्तुओं का सम्यक् उपयोग पर्यावरण के लिए हानिकारक नहीं, उनका अमर्यादित भोग एवं उपभोग हानिकारक है। इसलिए आगम में भोगोपभोग के परिमाण की बात कही गई है।
शिक्षा के पाठ्यक्रमों में जैनदर्शन के इस सिद्धान्त को सम्मिलित किया जाना चाहिए कि अधिकाधिक भोग सामग्री का होना विकास का सूचक नहीं है, अपितु वस्तुओं का उपयोग मात्र शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक है। भोगोपभोग का आकर्षण जितना कम होगा, पर्यावरण का संरक्षण उतना ही आसानी से हो सकेगा तथा देश-दुनिया के पर्यावरण में स्वच्छता कायम हो सकेगी। वह स्वच्छता बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों प्रकार के पर्यावरणों को संरक्षित कर सकेगी। फिर प्राकृतिक पर्यावरण के साथ सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक पर्यावरण में भी स्वच्छता का प्रभाव दृष्टिगोचर हो सकेगा।