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पर्यावरण-संरक्षण में भोगोपभोग-परिमाणवत की भूमिका
पर्यावरण की अशुद्धि का मानव-जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पर्यावरण के प्रदूषित होने पर मानव के सर्वविध स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है। यही नहीं प्राणिमात्र का जीवन संकट में पड़ जाता है। इसलिए पर्यावरण की शुद्धता आवश्यक है। पर्यावरण के प्रदूषण में मानव का जितना हाथ है, उतना किसी अन्य प्राणी का नहीं। उसकी गंदी प्रवृत्तियों से वायु, जल, पृथ्वी आदि सभी प्राकृतिक तत्त्व निरन्तर प्रदूषित हो रहे हैं। आज विकास की दौड़ के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन हो रहा है तथा भोग-उपभोग की वस्तुओं में निरन्तर वृद्धि हो रही है, जिससे पर्यावरण में अनेकविध प्रदूषण उत्पन्न हो रहे हैं। जैन धर्म में भोगोपभोग परिमाण-व्रत का विधान है, जिसकी प्राकृतिक संसाधनों के अनावश्यक दोहन तथा कचरे से उत्पन्न प्रदूषण को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। प्रस्तुत आलेख में उसकी चर्चा की जा रही है।
आगम-साहित्य में पर्यावरण चेतना
पर्यावरण-संरक्षण इस युग की महती आवश्यकता है। पर्यावरण और उसके संरक्षण के संबंध में जैनागमों में पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध होता है। आचारांग, सूत्रकृतांग, प्रश्नव्याकरण आदि आगमों में भगवान महावीर की वाणी पर्यावरण-चेतना से ओत-प्रोत दिखाई पड़ती है। आचारांग-सूत्र में पर्यावरण के प्रति भगवान महावीर की विशद चेतना का साक्षात्कार होता है। उन्होंने अनुभव कर प्रतिपादित किया कि बहुत से जीव ऐसे हैं, जिनकी काया मात्र पृथ्वी है, बहुत से जीव ऐसे हैं जिनकी काया मात्र जल है। इसी प्रकार अग्नि, वायु एवं वनस्पतिकायिक जीवों में भी महावीर ने चेतना का अनुभव किया । भगवान महावीर ने सब जीवों में इस तथ्य का साक्षात्कार किया कि सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सुख अनुकूल है, दुःख प्रतिकूल है, वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है, सभी जीव जीना चाहते हैं-"सव्वे पाणा पिआउया, सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा सव्वेसिंजीवितंपियं।" (आचारांग सूत्र 2.2.3)
सभी जीवों के प्रति एकात्मता का प्रतिपादन करते हुए उन्होंने कहा - "तुमंसि