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पर्यावरण-संरक्षण में भोगोपभोग - परिमाणव्रत की भूमिका
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कीटनाशकों एवं रसायनों का प्रयोग कर भूमि की स्वाभाविक उर्वरता को समाप्त कर रहा है। वनस्पति के उत्पादनों में रोग-प्रतिरोधक शक्ति न्यून होती जा रही है। देश में वनभूमि का प्रतिशत निरन्तर घटता जा रहा है। फर्नीचर आदि के लिए वनों का निरन्तर विनाश हो रहा है । औद्योगीकरण से उत्पन्न प्रदूषण बढ़ता जा रहा है। बडे-बडे कारखानों से उठता हुआ धुआँ वायुप्रदूषण को जन्म दे रहा है। सड़कों पर दौड़ते वाहन श्वास लेने में कठिनाई का अनुभव करा रहे हैं । फ्रिज आदि में प्रयुक्त क्लोरो फलोरो कार्बन ओजोन परत में विघटन उत्पन्न कर रहा है। खाद्य पदार्थों में मिलावट एवं प्लास्टिक पैंकिग का प्रयोग भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हो रहा है । इन दिनों फास्ट फूड की संस्कृति देश-विदेश में विस्तार पा रही है, किन्तु यह भोजन स्वादिष्ट भले ही हो, पौष्टिक तो कदापि नहीं है । सौन्दर्य प्रसाधन सामग्री के लिए भी अनेक मासूम प्राणियों की हिंसा की जा रही है। ये सौन्दर्य प्रसाधन चर्मरोगों को भी जन्म दे रहे हैं । इस प्रकार भोगोपभोग की सामग्री प्राकृतिक पर्यावरण को प्रदूषित कर रही है। गुटखा, शराब, तम्बाखू आदि का सेवन न केवल सेवनकर्ता को प्रभावित करता है, अपितु इससे अन्य लोग भी प्रभावित होते हैं।
उपभोक्ता संस्कृति के इस युग में भोगोपभोग की साम्रगी के प्रति लिप्सा बढ़ी है। उसका अधिकाधिक संग्रह करने के लिए व्यक्ति लालायित हुआ है। विज्ञापन के इस युग में उपभोक्ता में भोग्यवस्तुओं को क्रय करने हेतु आकर्षण उत्पन्न किया जाता है । बालकों, युवाओं, स्त्रियों एवं प्रौढों की रुचि के अनुरूप मनोवैज्ञानिक ढंग से विज्ञापन देने की विधि का निरन्तर विकास हो रहा है। इससे विज्ञापित वस्तुएँ उपभोक्ता की आवश्यकता बनकर उभरती हैं और वह फिर उन्हें खरीदने के लिए आतुर हो जाता है। इस उपभोक्ता संस्कृति के कारण पर्यावरण प्रदूषण में बेतहाशा वृद्धि हुई है। मर्यादाहीन भोगोपभोग या उपभोग-परिभोग के कारण अनेक हानियाँ हुई हैं, यथा1. जीवनदायी वायु, जल एवं खाद्य वस्तुओं में प्रदूषण बढ़ा है। 2. खनिज पदार्थो का भरपूर दोहन या शोषण हो रहा है । 3. पेट्रोलियम पदार्थों की खपत बढ़ी है। फलस्वरूप इनका भी संकट उपस्थित हो सकता है। 4. कृषियोग्य भूमि का उद्योग