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पर्यावरण-संरक्षण में भोगोपभोग - परिमाणवत की भूमिका
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का सूचक माना जा सकता है, किन्तु आज इनके बढ़ने से मानसिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रदूषण भी बढ़ रहा है, जो हास का सूचक है।
पर्यावरण प्रदूषण को रोकने एवं पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए जैनदर्शन में अनेक उपाय उपलब्ध हैं। इनमें अंहिसा, सत्य, अचौर्य आदि १२ व्रतों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ पर श्रावक के उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के आधार पर पर्यावरण-संरक्षण पर विचार किया जा रहा है। भोगोपभोग परिमाण व्रत से पर्यावरण संरक्षण
भोग या परिभोग वस्तु का एक बार होता है, यथा- भोजन आदि का। उपभोग एक से अधिक बार होता है, यथा- वस्त्र, मकान आदि का। भगवान ने श्रावक के लिए भोगोपभोग की मर्यादा हेतु उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत प्रतिपादित किया है। इसमें खाने-पीने एवं अन्य प्रकार की वस्तुओं के उपयोग की मर्यादा की जाती है। ___ उपभोग-परिभोग का यदि परिमाण कर लिया जाए तो पर्यावरण की संरक्षा
स्वतः हो सकेगी। कतिपय बिन्दु नीचे प्रस्तुत हैंभोगोपभोग के योग्य वस्तुओं का परिमाण कर लेने पर उनकी माँग कम होगी। मांग कम होने पर उत्पादन कम करना होगा। उत्पादन कम होने से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम होगा। प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कम होने से
प्रदूषण कम होगा एवं परिस्थिति का संतुलन बना रहेगा। 2. उपभोग-परिभोग की जितनी अधिक लालसा होती है, उतना ही मनुष्य
भोगोपभोग की सामग्री का अधिक संग्रह करता है। अधिक संग्रहवृत्ति से किसी एक के पास वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ जाती है, जबकि इससे दूसरे के अधिकारों का हनन होता है। उन्हें अनावश्यक रूप से उस वस्तु या सामग्री से वंचित रहना पड़ता है। इस प्रकार भोगोपभोग का परिमाण न होना सामाजिक पर्यावरण को प्रदूषित करता है। यदि भोगोपभोग का परिमाण हो जाए तो राष्ट्र
और विश्व की सामाजिक विषमता दूर की जा सकती है। 3. उपभोग-परिभोग का परिमाण कर लेने पर आहार, जल एवं वनों का
अनावश्यक विनाश रुक सकेगा। आज पेयजल की कमी का एक प्रमुख कारण