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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
एवं आवासों में रूपान्तरण हुआ है। 5. पीने योग्य पानी की कमी हुई है। 6. पृथ्वी का तापमान बढ़ा है। 7. जंगलों का विनाश हुआ है । 8. शारीरिक रोगों में वृद्धि हुई है। कैंसर, एड्स जैसे रोग पैदा हुए हैं, 9. जीवन प्राकृतिक सौन्दर्य एवं स्वास्थ्य से वंचित हो रहा है। 10. मानसिक तनाव बढ़ा है, मनोविकारों में वृद्धि हुई है। 11. परिवारों का बिखराव हुआ है। 12. समाज में विषमता बढ़ी है, दस प्रतिशत धनिक लोगों का नब्बे प्रतिशत साधनों पर नियन्त्रण है। 13. पारस्परिक संवेदनशक्ति घटी है। 14. करुणा, अनुकम्पा, सहयोग एवं सहानुभूति में कमी आई है। 15. संबंधों की पवित्रता दूषित हुई है। 16. हिंसा, असत्य, चौर्य, मैथुन सेवन एवं परिग्रह में वृद्धि हुई है। ऐसे और भी अनेक दुष्परिणाम हैं जो भोगोपभोग की अमर्यादा के कारण उत्पन्न हुए हैं। इनसे आन्तरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार का पर्यावरण दूषित हुआ है। भोगोपभोग की सामग्री : विकास का सम्यक् मापदण्ड नहीं
आज विकास का मापदण्ड भोग-उपभोग की सामग्री में वृद्धि के आधार पर आंका जाता है, किन्तु विकास का यह सही मापदण्ड प्रतीत नहीं होता । वास्तविक विकास में आम लोगों की सम्यक् समझ का विकास आवश्यक है। वस्तु का होना विकास नहीं, अपितु उसका उपयोग किस प्रकार एवं कितना किया जाए, उसका शिक्षण भी आवश्यक है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने इस संदर्भ में सही कहा कि पिछड़े वर्ग का शैक्षणिक एवं सामाजिक स्तर जब तक उन्नत नहीं होगा तब तक समुचित विकास संभव नहीं है। दूसरी बात यह है कि भौतिक सामग्री के वृद्धिरूप विकास पर्यावरण प्रदूषण का उत्पादक एवं अभिवर्धक होने के कारण समग्रता की दृष्टि से हास ही अधिक कर रहा है, जिसका दूर दृष्टि के अभाव में हम मूल्यांकन नहीं कर पा रहे हैं । यह विकास का व्यवस्थित रूप नहीं है। यदि पर्यावरण का उपयोग सहज रूप में होता है तो उससे पर्यावरण का संतुलन बना रहता है, किन्तु जब उसमें अनावश्यक हस्तक्षेप किया जाता है तो इससे पर्यावरण का अंसतुलन बढ़ता है।
हिंसा, आतंक, दुराचार, भ्रष्टाचार आदि की घटनाओं में कमी होना विकास