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पर्यावरण-संरक्षण में भोगोपभोग - परिमाणवत की भूमिका
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णामतंचेवजहंतव्वंत्ति मण्सि " (आचारांग 1, 5.5) जिसे तुम मारने योग्य समझते हो, वह तुम ही हो। अर्थात् तुम्हारे में एवं अन्य जीव में कोई भेद नहीं है। इसी आशय को अभिव्यक्त करते हुए स्थानांग सूत्र में चेतना की दृष्टि से आत्मा को एक भी कहा गया है- 'एगेआया' (स्थानांग सूत्र 1.1) पर्यावरणःजैन दृष्टि में
हमारे चारों ओर जो कुछ है, वह सब पर्यावरण है- परितः आवरणं पर्यावरणम्। हम भी उस पर्यावरण के अंग हैं। यह पर्यावरण जैन दर्शनानुसार दो प्रकार का है - सजीव और निर्जीवा धर्म, अधर्म, आकाश एवं पुद्गल का समावेश निर्जीव पर्यावरण में तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रसकायिक जीवों का समावेश सजीव पर्यावरण में होता है। यह लोक अनेक सूक्ष्म जीवों एवं अजीव द्रव्यों से पूरी तरह भरा हुआ है । आज जो बैक्टीरिया प्रोटोजोआ आदि सूक्ष्म जीवों की चर्चा की जाती है वह भी सजीव पर्यावरण का अंग है। सजीव एवं निर्जीव दोनों प्रकार के द्रव्य मिलकर पर्यावरण को पूर्णता प्रदान करते हैं। दोनों की पारस्परिक उपयोगिता है। जीव में उत्पन्न प्रदूषण का फल अजीव पुद्गल पदार्थों पर भी दृष्टिगोचर होता है तथा अजीव पदार्थो का प्रभाव जीव पर भी पड़ता है । इसकी पुष्टि तत्त्वार्थसूत्र के अग्रांकित सूत्रों से होती है• गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोरुपकारः। • आकाशस्यावगाहः। • शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम्। • सुख-दुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च। • परस्परोपग्रहो जीवानाम्। • वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य। -तत्त्वार्थसूत्र 5.17-22 • धर्म एवं अधर्म द्रव्य का उपकार गमन एवं स्थिति में निमित्त होना है। • आकाश का कार्य अन्य सभी द्रव्यों को स्थान देना है। • पुद्गल से जीव को शरीर, वाणी, मन, प्राण एवं अपान प्राप्त होते हैं। • सुख-दुःख, जीवन-मरण रूप उपग्रह भी पुद्गलों द्वारा सम्पन्न होते हैं।