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- जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
5. परिग्रह पाप है, अतः उसका त्याग एवं परिमाण आत्महितकारी है। 6. आरम्भ, मिथ्या भाषण, चौर्य, लोभ आदि दोषों से बचने के कारण आस्रव का
निरोध कर कर्म बन्धन से बचा जा सकता है। 7. जहाँ आनव-निरोध रूप संवर की साधना होती है, वहाँ पूर्वकृत कर्मों की
निर्जरा भी सहज ही होने लगती है। 8. परिग्रह-परिमाण करने वाला व्यक्ति निर्धन वर्ग की ईर्ष्या का भाजन बनने से
बच जाता है। 9. हृदय में उदारता की भावना को बल मिलता है, जो स्वयं को एवं दूसरों को
प्रसन्न रखने में सहायक होती है। 10. परिग्रह का परिमाण सर्वजनहिताय सर्वजनसुखाय होता है, क्योंकि उसमें
सम्पदा पर एकाधिपत्य की भावना का नाश हो जाता है। अपनी पूर्ति होने के पश्चात् सर्वकल्याण का भाव विकसित हो सकता है।
सम्प्रति न केवल भारत में, अपितु समस्त विश्व में बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, और पर्यावरण प्रदूषण की समस्याएँ मुँहबायें खड़ी हैं। इन समस्याओं के निराकरण में भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित परिग्रह परिमाणव्रत एक सार्थक उपाय सिद्ध हो सकता है। बेरोजगारी एवं निर्धनता से पीड़ित व्यक्तियों को ईश्वर या भाग्य के भरोसे छोड़ना उचित नहीं है। उनके मन में असीम इच्छाओं की उत्पत्ति का उदाहरण प्रस्तुत करना भी समुचित नहीं। उनके लिए श्रमनिष्ठ आजीविका के साधनों का विकास तथा तदनुकूल शिक्षण का विकास आवश्यक है। परिग्रह-परिमाणव्रती श्रावक-समाज इस दिशा में थोड़े क्षेत्र में ही सही, आदर्श निदर्शन बन सकता है।
भ्रष्टाचार की समस्या पुरातनकाल से चली आ रही है। बिना श्रम के धन अर्जित करने की लालसा ही इसका मूल कारण प्रतीत होती है। व्रती व्यक्ति इस प्रकार की लालसा से रहित होकर भ्रष्टाचारमुक्त वातावरण प्रदान कर सकता है। धन या सत्ता की प्राप्ति आतंकवाद का मुख्य हेतु है। परिग्रह-परिमाणव्रती स्वयं इससे मुक्त रहता है, साथ ही दूसरों के लिए भी वह प्रेरक उदाहरण बन सकता है।