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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
का परिमाण भावी की अपेक्षा से नहीं, जितना उनके पास था उसके आधार पर किया था। श्रावक के तब के एवं अब के आचार में यह एक प्रमुख भेद है कि वर्तमान में श्रावक की व्रत रखते समय भी परिग्रह की भावना बलवती रहती है, जबकि आनन्द आदि श्रावकों में व्रत-अंगीकार करने के साथ परिग्रह-त्याग का भाव उच्च था। (2) इच्छा-परिमाण या परिग्रह परिमाण से आर्थिक विकास अवरुद्ध नहीं होता, अपितु परिमाण से अधिक अर्जित राशि का उपयोग बेरोजगारों को रोजगार उपलब्ध कराने में अथवा समाजहित या राष्ट्रहित के उपयोगी कार्यों में किया जा सकता है। इससे समाज में आर्थिक सन्तुलन भी बनता है तथा हर जरूरतमन्द को जीवन-निर्वाह का साधन मिल जाता है। परिग्रह-परिमाण व्रती के लिए दूसरे शब्दों में कहें तो जिसे अपने लिए नहीं चाहिए, वह दूसरों के लिए उपयोगी बन जाता है। (3) वर्तमान आर्थिक युग में उपभोक्तावाद का प्रबल प्रभाव है। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ या औद्योगिक प्रतिष्ठान अपने उत्पाद बेचने के लिए मनोवैज्ञानिक ढंग से दूरदर्शन, आकाशवाणी, अखबार, होर्डिंग आदि के माध्यम से ऐसा विज्ञापन करते हैं कि आवश्यकता न होने पर भी उन्हें खरीदने हेतु मनुष्य का मन बन जाता है। यही नहीं कम्पनियों द्वारा बिना ब्याज के किश्तों में उन उत्पादों की उपलब्धता से ग्राहकों को आकर्षित किया जाता है। बैंकों द्वारा प्रदत्त ऋण एवं कैशकार्ड-क्रेडिट कार्ड भी इसमें अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उत्पादों में परस्पर स्पर्धा है, इसलिए ग्राहकों को अहं आकर्षित कर आर्थिक कारोबार में तेजी लायी जाती है। मध्यम वर्ग का मानव आज अपनी आय से अधिक वस्तुओं को क्रय करने में अपनी प्रतिष्ठा समझने लगा है। घर पर उपलब्ध ये वस्तुएँ मनुष्य की प्रतिष्ठा की मानदण्ड समझी जा रही हैं। जिसके पास सुविधाओं का जितना अम्बार है, वह उतना ही अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है। इससे मानव की असन्तुष्टि का ग्राफ निरन्तर ऊँचा जा रहा है। पहले जहाँ एक स्कूटर से व्यक्ति सन्तुष्ट था वहाँ आज वह एक कार से भी असन्तुष्ट है। अब उसे घर के प्रत्येक सदस्य के लिए अलग-अलग कारें चाहिए। वे भी सामान्य नहीं, वातानुकूलित होनी चाहिए। वे भी नया मॉडल निकलने पर फिर बदल ली जाती हैं। मोबाइल फोन की विविधता एवं सुविधा सम्पन्नता का विस्तार