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परिग्रह - परिमाणव्रत की प्रासंगिकता
परिग्रह-परिमाण के साथ आजीविका के साधनों की पवित्रता पर भी ध्यान दिया गया है। अंगार कर्म, वन कर्म आदि 15 व्यवसायों को हिंसा के आधिक्य एवं कर्मबन्धन का प्रमुख स्रोत होने से श्रावक के लिए त्याज्य बताया गया है।
अर्थ-विकास के इस युग में गृहस्थ श्रावक के द्वारा परिग्रह - परिमाण के औचित्य के सन्दर्भ में यहाँ पर कतिपय बिन्दु प्रस्तुत हैं
(1) प्रश्न यह होता है कि जिसके पास पर्याप्त धन-सम्पदा है वह यदि परिग्रह परिमाण करे तो उचित प्रतीत होता है, किन्तु जिसके पास खाने को रोटी नहीं, पहनने को कपड़े नहीं, रहने को आवास नहीं, आजीविका का स्थायी साधन नहीं, प्रतिदिन मजदूरी कर जो उदर का भरण करता हो उसके द्वारा परिग्रह-परिमाण किया जाना क्या उचित हो सकता है ? परिग्रह-परिमाण व्रत तो उसी को सुशोभित हो सकता है जिसके पास मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के पश्चात् भी पर्याप्त साधन विद्यमान हों। उपासकदशांग सूत्र का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आनन्द आदि श्रावकों के पास करोड़ों स्वर्णमुद्राएँ थीं, तब उन्होंने भगवान महावीर के मुखारविन्द से परिग्रह का परिमाण किया । किसी निर्धन ने परिग्रह का परिमाण किया हो, ऐसा उल्लेख नहीं मिलता ।
उपर्युक्त प्रश्न का समाधान यह कह कर किया जा सकता है कि कोई निर्धन भावी की अपेक्षा से वर्तमान में भी परिग्रह परिमाण कर सकता है । सम्भव है भविष्य में उसके पास करोड़ों की धन-सम्पदा हो जाए, अतः वह उस अपेक्षा से वर्तमान में भी परिग्रह परिमाण करे तो अनुचित नहीं । परिग्रह - परिमाण का उद्देश्य है वस्तु एवं व्यक्तियों के प्रति ममत्व एवं आसक्ति को हेय समझकर उनके प्रति आकर्षण को कम करते हुए पूर्णतः समाप्त करना । कोई व्यक्ति निर्धन होने से अपरिग्रही नहीं होता । निर्धनता एवं अपरिग्रह में महान् भेद है । निर्धन व्यक्ति भी धन, वस्तु, भवन आदि के लिए तीव्र लालसा एवं कामना मुक्त हो सकता है, तो वह भी परिग्रही ही है । उस लालसा को जीतना ही अपरिग्रह - सिद्धान्त का मूल प्रतिपाद्य है । अतः परिग्रह का परिमाण करते समय परिग्रह रखने की अधिकाधिक इच्छा त्याज्य है। कुछ लोग जितनी धन-सम्पदा उनके पास जीवन पर्यन्त न हो सके, उतने परिग्रह की मर्यादा करते हैं, जो समीचीन नहीं है। आनन्द आदि श्रावकों ने परिग्रह