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परिग्रह - परिमाणव्रत की प्रासंगिकता
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तेजी से हो रहा है।
यहाँ पर दो बिन्दु उभर कर आते हैं। पहला तो यह कि सुविधाओं का जितना विस्तार या विकास होता है, मनुष्य से संतोष उतना ही दूर होता जाता है। यदि वह परिमाण या नियन्त्रण करके चलता है तो सदैव सन्तुष्ट रह सकता है । दूसरा बिन्दु यह है कि वैज्ञानिक साधनों एवं सुविधाओं से मनुष्य की कार्यक्षमता बढ़ी है। इस दृष्टि से इनकी उपयोगिता है । किन्तु इन सुविधाओं ने उसको पराधीनता में ही जकड़ा है तथा उसके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित किया है। (4) आर्थिक विकास को ही यदि केन्द्र में रखा जाए एवं न्याय-नीति को गौण कर दिया जाय तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, यथा - अनैतिकता, भ्रष्टाचार, असंयम, लोभ, वस्तुओं की दासता, शोषण, मिलावट, तस्करी, काला बाजारी, धोखाधड़ी आदि। इसके विपरीत यदि मानवव - हित को लक्ष्य में रखकर परिग्रह की मर्यादा को प्रोत्साहन दिया जाए तो उपर्युक्त दोषों में निश्चित रूप से कमी आ सकती है। (5) मात्र अर्थ-केन्द्रित विकास मनुष्य की वृत्तियों को पशुत्व की ओर ले जा सकता है। वह उसे संवेदनाशून्य, क्रूर एवं स्वार्थी बनाता है, किन्तु परिग्रह - परिमाण व्रत मनुष्य को जीवन मूल्यों से जोड़े रखता है, जिससे वह अपनी दुष्प्रवृतियों पर नियन्त्रण करने के साथ जगत् के अन्य प्राणियों के प्रति संवेदनशील, उदार एवं सहयोगी बनता है। आर्थिक विकास के साथ मानवता का विकास भी आवश्यक है, जिसमें परिग्रह-परिमाण व्रत की महती भूमिका हो सकती है।
(6) परिग्रह का परिमाण अनेक कारणों से मानव जाति के लिए लाभप्रद है, उनमें से कतिपय कारण इस प्रकार हैं
1. परिग्रह परिमाण मानव को आत्म-सन्तोष एवं शान्ति प्रदान करता है।
2. अनन्त इच्छाओं को सीमित करने के कारण व्यक्ति मनोजयी, इन्द्रिय-विजेता एवं आत्म-विजेता बनता है।
3. परिमाण से अधिक धन होने पर व्यक्ति उसका जनहित में उपयोग कर सकता है।
4. वह जगत् में अनेक लोकोपकारी कार्य कर पुण्य का संचय कर सकता है।