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अहिंसा का समाज दर्शन
अहिंसा दो स्वरूपों में प्राप्त होती है- 1. हिंसा के निषेध रूप में, 2. दया, करुणा, अनुकम्पा आदि के सकारात्मक रूप में। इन्हें अहिंसा के दो पक्ष भी कहा जा सकता है। इनमें द्वितीय पक्ष तो समाज-दर्शन से सीधा सम्बद्ध है तथा प्रथम पक्ष प्राणियों की रक्षा के रूप में समाज-दर्शन का अंग बनता है। अहिंसा की आध्यात्मिक दृष्टि भी है तो सामाजिक दृष्टि भी। हिंसा का त्याग आध्यात्मिक दृष्टि से जहाँ संवर का कारण है वहाँ सामाजिक दृष्टि से उसका प्रभाव प्राणि-रक्षण के रूप में समस्त प्राणियों को प्राप्त होता है। प्राणिजगत् के सह-अस्तित्व, पर्यावरण-संरक्षण, शान्ति और सामाजिक सौहार्द के लिए अहिंसा अमृत की भांति उपादेय है। 'सब्वेसिं जीवितं पियं’- सभी जीवों को जीवन प्रिय है- यह सूत्र जहाँ अहिंसा के समाजदर्शन का आधार है, तो ‘आयतुले पयासु'- सब जीवों को अपने समान समझें, 'मित्तिं भूएसु कप्ए' सब जीवों के प्रति मैत्रीभाव रखें, 'दयामूलो भवेद् धर्मो' धर्म दयामूलक होता है- आदि वाक्य अहिंसा के समाजदर्शन को पुष्ट करते हैं।
समाजदर्शन का आधार :संवेदनशीलता एवं जीवनप्रियता
अहिंसा का जितना सूक्ष्म और विशद विवेचन जैनदर्शन में हुआ है, उतना अन्य किसी दर्शन में दिखाई नहीं देता। पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय
और वनस्पतिकाय के स्थावर एकेन्द्रिय जीवों तथा त्रसकाय के द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों की हिंसा न करने, न कराने तथा अनुमोदन न करने का विवेचन जैनदर्शन की अनूठी विशेषता है। पृथ्वीकायिक आदि जीवों का रक्षण अहिंसा के समाजदर्शन को खड़ा करता है। पृथ्वी एवं जल का उपयोग यदि सीमित नहीं हुआ तो मनुष्य की भावी पीढ़ियों का जीवन सुरक्षित नहीं रह सकेगा। मनुष्य समाज ही नहीं समस्त प्राणिजगत् पृथ्वी एवं जल पर टिके हुए हैं। वायु भी सबके जीवन का आधार है, उसका रक्षण मानव का अनिवार्य कर्त्तव्य है।
आचारांगसूत्र में विश्व के समस्त जीवों की रक्षा को दृष्टि में रखकर कहा गया है- सव्वे पाणा पिआउया सुहसाता दुक्खपडिकूला अप्पियवधा पियजीविणो जीवितुकामा।-आचारांगसूत्र, 1.2.3