________________
अहिंसा का समाज दर्शन
जाता है। एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के हम जैसे सभी औदारिक शरीरधारी जीवों का अकालमरण सम्भव है, अतः जहर खाकर या रेल की पटरी के आगे कूदकर आयुष्य कर्म की परीक्षा नहीं करनी चाहिए तथा कत्लखानों में निरन्तर मारे जा रहे पशुओं को बचाने हेतु प्रयत्न करना चाहिए। हिंसा को रोकने की बात तभी सम्भव है जब हम अकालमरण की अवधारणा को स्वीकार करके चलें । क्षेमंकरी अहिंसा
289
सहजीवन, सहअस्तित्व एवं विश्वशान्ति के लिए अहिंसा को सामाजिक आन्दोलन के रूप में स्वीकार करना होगा। पेड़-पौधों की रक्षा का प्रश्न हो या जंगली जानवरों के संरक्षण का सवाल, सब जगह अहिंसा को अपनाना होगा। अहिंसा के अभाव में हमारा जीवन भी संदिग्ध बन जाता है। पर्यावरण की शुद्धि की बात हो या पृथ्वी को बचाने की, सर्वत्र अहिंसा भगवती कल्याण-कारिणी है। अहिंसा का यह सार्वजनिक अभियान किसी प्राणी के लिए लाभकारी होगा, अन्य के लिए नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । अहिंसा सबको निर्भयता, स्वतन्त्रता एवं जीवन प्रदान करती है। इसीलिए 'प्रश्न - व्याकरणसूत्र' में कहा गया है-अहिंसा तसथावरसव्वभूयखेमंकरी ।
अहिंसा त्रस एवं स्थावर समस्त प्राणियों का क्षेम करने वाली होती है। वह एक का नहीं समस्त प्राणियों का कल्याण करती है। वह अहिंसक का तो कल्याण करती ही है, किन्तु उसके सम्पर्क में आने वालों का भी उससे कल्याण होता है। ऋषियों के आश्रम में वैर-विरोध त्याग कर समस्त प्राणी एक साथ बैठते थे, यह संस्कृत साहित्य में भूरिशः उल्लेख है। तीर्थंकरों के समवसरण में भी निर्भय होकर विरोधी प्राणी एक साथ बैठकर उपदेश श्रवण करते थे। इसीलिए कहा गया भगवती अहिंसा भयाणं विव सरणं । (प्रश्नव्याकरण, 2.1 ) भगवती अहिंसा भीत प्राणियों की शरण प्रदात्री है।
-
जिस प्रकार हिंसा में स्व एवं पर दोनों का अहित विद्यमान है, उसी प्रकार अहिंसा में स्व एवं पर दोनों का हित निहित है।
अहिंसा में सहायक है यतना
जैनदर्शन में यह निर्देश है कि जो भी कार्य करो उसे यतनापूर्वक करो,