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जैनागम साहित्य में अहिंसा हेतु उपस्थापित युक्तियाँ
अहित का ही कारण बनती है।
यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कभी-कभी जीवन में हमें हिंसा में भी हित दिखाई पड़ता है। बहुत सी धर्मक्रियाएँ भी हिंसायुक्त होती हैं तथा कभी हमें दो हिंसाओं में से एक हिंसा का चुनाव करना पड़ता है। ऐसे अवसर पर जैन दार्शनिकों ने बड़ी हिंसा की अपेक्षा छोटी हिंसा या अल्प हिंसा को स्वीकार करने का सुझाव दिया है। बहु-आरम्भ अथवा बहु-हिंसा को जहाँ नरकायु के बन्ध का कारण माना गया है वहाँ अल्पारम्भ या अल्पहिंसा को मनुष्यायु का हेतु प्रतिपादित किया गया है 123 धर्मक्रियाओं में होने वाली हिंसा को जैनों ने हिंसा की ही श्रेणी में रखा है, धर्म की श्रेणी में नहीं, जैसा कि आचारांग सूत्र के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है । किन्तु धर्मक्रिया करते समय भावों की शुभता या विशुद्धता के कारण प्रायः भावहिंसा नहीं होती है। भावहिंसा ही बंधन का मुख्य कारण बनती है, द्रव्य हिंसा नहीं | " भावों की विशुद्ध होने पर ही जीव अरिहन्त प्रज्ञप्त धर्म की आराधना के लिए उद्यत होता है।
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6. अहिंसा में सबका कल्याण निहित है
प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहा गया है - अंहिसा तस - थावर -: - सव्वभूयखेमंकरी" . स एवं स्थावर सभी प्राणियों के लिए अहिंसा कल्याणकारिणी है। सबका हित करने वाली अहिंसा सबके लिए अवश्य उपादेय है। हिंसा अहितकारिणी है। वह हिंसक का भी अहित करती है, हिंस्य को भी पीड़ित करती है तथा पर्यावरण को भी प्रदूषित करती है। हिंसा को आज विश्वस्तर पर त्याज्य माना जा रहा है। 7. मैत्रीभाव के लिए अहिंसा आवश्यक है
सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट कथन है कि हिंसा करने, हिंसा कराने एवं हिंसा का अनुमोदन करने से वैर बढ़ता है -
संय तिवाय पाणे, अदुवऽन्नेहिं घायए । हणंतं वाणुजाणाइ, वेरं वड्ढइ अप्पणो ।।”
अतः मैत्रीभाव की स्थापना के लिए अहिंसा आवश्यक है । भय एवं वैर से उपरत होकर मनुष्य को चाहिए कि वह प्राणियों के प्राणों का हनन न करे - नहणे पाणिण पाणे, भयवेराओ उवरए । "