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अपरिग्रह की अवधारणा
अपरिग्रह का सिद्धान्त मानव जाति की खुशहाली, मानसिक शान्ति एवं सामाजिक समरसता के लिए अत्यन्त उपयोगी है। यह प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण, उसके सम्यक् वितरण एवं महंगाई पर नियन्त्रण के लिए भी उपादेय है। अपरिग्रह की अवधारणा मूलतः चेतन प्राणियों एवं जड़ पदार्थों पर मनुष्य की अधिकार-भावना पर नियन्त्रण करती है। सुख की लालसा के कारण मानव पदार्थों एवं धन का संग्रह करता है तथा प्राणियों पर अधिकार कर हुकुम चलाता है। परिग्रह की इस वृत्ति के कारण अन्य प्राणियों की हिंसा होती है तथा जड़ पदार्थों का अनावश्यक संग्रह होने से समाज-व्यवस्था गड़बड़ा जाती है। आध्यात्मिक दृष्टि से कहा जाए तो पर-पदार्थों के प्रति मूर्छाभाव परिग्रह है, जो आसक्ति एवं ममत्व के रूप में प्रकट होता है। यह मूर्छाभाव मनुष्य की चेतना को सुप्त एवं संवेदना शून्य बनाकर बन्धन में डाल देता है। यह बन्धन मनुष्य को पराधीन एवं दुःखी करता है, अतः परिग्रह त्याज्य है। व्यक्तिगत शान्ति एवं चित्त की स्वस्थता के लिए भी परिग्रह त्याज्य है तो सामाजिक हित में भी पदार्थ-संग्रह रूप परिग्रह का त्याग-भाव अपेक्षित है।
अपरिग्रह का स्वरूप
परिग्रह का अभाव या अल्पता ही अपरिग्रह है। अब यह परिग्रह क्या है? 'परिग्रह' शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। प्राकृत में इसे 'परिग्गह' कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति 'परि' उपसर्गपूर्वक 'ग्रह' धातु से 'घञ्' प्रत्यय लगकर होती है। ‘ग्रह' धातु का अर्थ होता है ग्रहण करना या पकड़ना और परिग्रह का अर्थ है- भली-भांति पकड़ लेना अर्थात् जकड़ लेना। पर-पदार्थों को मानसिक रूप से पकड़े रखना या उनमें आसक्ति रखना ही परिग्रह है। पर-पदार्थों में स्वयं की आत्मा के अतिरिक्त सृष्टि की सारी वस्तुएँ, व्यक्ति, धन-सम्पत्ति, शरीर आदि सभी पदार्थ सम्मिलित हो जाते हैं। यह पदार्थ मेरा है, यह मुझे चाहिए, इसका विनाश मेरा विनाश है, इसका विकास मेरा विकास है, यह तो बढ़ते रहना चाहिए, इससे सुख भोगना है आदि समस्त मानसिक विकल्प परिग्रह रूपी वृक्ष की ही शाखाएँ हैं। इसीलिए कहा है- “नथि एरिसो पासो पडिबंधो सव्वजीवाणं" (प्रश्नव्याकरणसूत्र, 1.5) अर्थात्