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अपरिग्रह की अवधारणा
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पाता है। वह इन्द्रियों पर निग्रह भी नहीं कर पाता, क्योंकि परिग्रह का जन्म ही इन्द्रिय-जन्य सुख पर आधारित होता है। परिमित समय के लिए भोग-उपभोग की वस्तुओं के प्रत्याख्यान रूप नियम का भी पालन नहीं कर पाता है। (आचारांगभाष्य 1.2.3, सूत्र 59 का भाष्य)। इसका तात्पर्य है कि आध्यात्मिक दृष्टि से वह अपना विकास करने में असमर्थ होता है। जिस क्षण व्यक्ति को इन पर-पदार्थों, धन-सम्पत्ति एवं परिजनों के प्रति आसक्ति असह्य लगती है तो वह उसी क्षण इन्हें त्यागकर प्रव्रजित हो जाता है। यही नहीं वह समस्त बन्धनों से मुक्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में भी सफल हो जाता है। परिग्रह किसके लिए? ___ कुछ लोग यह कहते हैं कि वे अपने लिए धनार्जन नहीं करते, परिवार के सदस्यों की सुख-सुविधा तथा बच्चों के अध्ययन और उन्नयन के लिए धन एवं पदार्थ का संग्रह करते हैं। यद्यपि पारिवारिकजनों के समुचित विकास एवं पालन-पोषण हेतु सामग्री जुटाने का दायित्व परिवार के प्रमुख सदस्य का होता है तथापि वह अपनी पारिवारिक जनों के प्रति आसक्ति होने के कारण तथा स्वयं के धन सम्पदा कमाने में रस के कारण क्रूर एवं अनैतिक कर्म करके भी धन-संग्रह में लगा रहता है और अन्त में दुःख प्राप्त करता है। आचारांग सूत्र के शब्दों में"इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुव्वमाणे तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासमवेति।" (आचारांग 1.2.2, सूत्र 79) अर्थात् अज्ञानी पुरुष दूसरे के लिए क्रूर कर्म करता हुआ, दुःख में मूढ होकर विपर्यास को प्राप्त करता है। सुख के स्थान पर उसे दुःख प्राप्त होता है, यही विपर्यास है। इच्छा का परिमाण
मनुष्य यह जाने कि उसको जीने के लिए कितनी एवं किन वस्तुओं की आवश्यकता है। इसका ठीक से मूल्यांकन कर वह अपनी इच्छाओं को सीमित कर सकता है। जिस प्रकार वर्तमान काल में कम सन्तान को सुख का एक आधार माना गया है उसी प्रकार इच्छाओं की सीमा भी जीवन की यात्रा को अपेक्षाकृत सुखी बना देती है। अधिक इच्छाएँ मनुष्य को अशान्त बनाती हैं। इच्छाओं पर नियन्त्रण भी ज्ञानपूर्वक होना चाहिए। यह जीवन सीमित है, असीमित भोगेच्छाओं को