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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
ममाइय-मतिं जहाति, से जहाति ममाइयं।' (आचारांगसूत्र, 1.2.6, सूत्र 156) अर्थात् जो ममत्व या परिग्रह की बुद्धि का त्याग करता है वह परिग्रह का त्याग करता है। जब तक ममत्वबुद्धि रहती है तब तक व्यक्ति के चित्त में संसार रहता है तथा वह उसके चिपकाव एवं बन्धन से रहित नहीं हो पाता है। _ 'ईशावास्योपनिषद्' (मंत्र 1) में भी आसक्ति छोड़ने हेतु प्रेरित करते हुए
कहा है
ईशावास्यमिदंसर्व यत्किञ्चजगत्यांजगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, मागृद्धः कस्यस्विद्धनम्॥ अर्थात् इस संसार के पदार्थों का त्याग भाव से भोग करो तथा किसी के धन के प्रति आसक्त मत बनो। त्याग भाव से भोग करने का अर्थ है- आसक्ति त्याग अथवा अपरिग्रह। त्यागभाव के कारण भोग्य पदार्थों के साथ सम्बन्ध स्थापित नहीं होता, फलस्वरूप परिग्रह नहीं होता। यही भाव 'भगवद्गीता' में भी है। श्रीकृष्ण फल की कामना से रहित होकर कार्य करने की प्रेरणा देते हैं। फल की कामना ही आसक्ति को जन्म देती है और उससे रहित होने पर जो कार्य किया जाता है वह बाँधता अथवा जकड़ता नहीं है। प्राणी तनावग्रस्त नहीं होता, वह परिग्रह से परे रहता है। भगवद्गीता में 'अपरिग्रह' शब्द का भी प्रयोग हुआ है। वहाँ योग साधना के लिए परिग्रह रहित होना आवश्यक माना गया है। डॉ. दयानन्द भार्गव ने अपरिग्रह का अर्थ करते हुए कहा है- “अपरिग्रह का एक अर्थ यह है कि मनुष्य अपने आपको भोग्य पदार्थों का स्वामी न समझे। स्वामित्व का अर्थ है- दूसरे को अपना दास बनाने की इच्छा कि वह हमारे अनुकूल चले। यदि वह वैसा नहीं करता है तो हमें दुःख होता है। अपरिग्रह का दूसरा अर्थ है- हम परिग्रह के गुलाम न हो जाएं। परिग्रह की गुलामी का अर्थ है- पराधीनता। अपरिग्रह का अर्थ है स्वतन्त्रता। पदार्थों का उपयोग करें, क्योंकि पदार्थों के बिना जीवनयात्रा सम्भव नहीं है, किन्तु पदार्थों के गुलाम न बनें।' डॉ. सागरमल जैन भी यही बात कहते हैं कि हमें वस्तुओं के प्रयोग का अधिकार है, उनके स्वामित्व का नहीं।
'कठोपनिषद्' में एक कथा आती है जिसमें यम से नचिकेता आत्मा की अमरता के विषय में जिज्ञासा प्रकट करता है और जानना चाहता है कि आत्मा