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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
8. सभी जीव पहले ही दुःख से पीड़ित हैं
संसारी जीव पहले से ही दुःखाक्रान्त हैं, इसलिए हिंसा के द्वारा उन्हें और अधिक दुःखी नहीं किया जाना चाहिए- सव्वे अक्कंतदुक्खा य, अतो सव्वे अहिंसिआ।" अथवा दुःख सबको अकान्त अर्थात् अप्रिय है, इसलिए भी उनकी हिंसा नहीं की जानी चाहिए। हिंसा से असाता उत्पन्न होती है जो अशान्ति, महभय एवं दुःख रूप होती है- सव्वेसिं पाणाणं, सव्वेसिं भूताणं, सव्वेसिं जीवाणं, सव्वेसिसत्ताणंअसायंअपरिनिव्वाणंमहब्भयंदुक्खंत्तिबेमि।" 9. भयभीतों के लिए अहिंसा शरणभूत है
प्रश्नव्याकरणसूत्र में अहिंसा के संदर्भ में प्रतिपादन करते हुए कहा गया हैएसा सा भगवई अहिंसाजासाभीयाणं विवसरणं, पक्खीणं विवगमणं, तिसियाणं विव सलिलं, खुहियाणं विव असणं, समुद्दमज्झे य पोयवहणं, चउप्पयाणं व आसमपयं, दुहट्ठियाणं व ओसहिबलं।' यह भगवती अहिंसा भयभीतों के लिए शरण है। यह पक्षियों के लिए आकाश के समान, तृषितों के लिए सलिल के समान, बुभुक्षितों के लिए भोजन की तरह, समुद्र के मध्य जहाज की भाँति, चतुष्पदों के लिए आश्रमस्थल के समान तथा रोग के दुःख से ग्रस्तों के लिए औषधिबल के समान है। 10. हिंसा दुःखजनक है
आचारांग सूत्र में प्रतिपादित है कि यह दुःख आरम्भजन्य है- आरम्भजं दुक्खमिणं ति णच्चा। एवमाहु समत्तदंसिणो।" जो अपनी साता या सुख के लिए अन्य प्राणियों की हिंसा करता है, वह कुशील धर्मवाला होता है - अहाहु से लोगे कुसीलधम्मे भूताइं से हिंसति आतसाते। हिंसा की दुःखरूपता को आचारांगसूत्र में इस प्रकार भी अभिव्यक्त किया गया है - सोच्चा भगवतो अणगाराणं इहमेगेसिं णातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। यह हिंसा का कार्य बंधन में पटकने वाला, मूर्छा उत्पन्न करने वाला, अनिष्ट में धकेलने वाला एवं नरक में ले जाने वाला है।
कभी हिंसा का कार्य सप्रयोजन होता है, तो कभी निष्प्रयोजन-अट्ठा हणति अणट्ठा हणंति। यदि निरर्थक या निष्प्रयोजन हिंसा का पूर्ण त्याग करते हुए