________________
320
जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
पेड़-पौधों की हिंसा, जल एवं वायु की हिंसा, कीटनाशकों के प्रयोग से हिंसा, पशु-पक्षियों की हिंसा आदि से पर्यावरण प्रदूषण बढ़ता रहता है। भ्रष्टाचार की समस्या भी तभी उत्पन्न होती है, जब मन में प्रदूषण का भाव हो। दूसरों को एवं अपने को होने वाली पीड़ा का यदि पहले से ही बोध हो जाए तो भ्रष्टाचरण की
ओर मानव प्रवृत्त ही न हो। आचरण की पूर्ण शुद्धता एवं नैतिकता अहिंसा के होने पर ही सभंव है। अहिंसा के होने पर जीवन में शान्ति, सौहार्द एवं प्रेम का अजम्न झरना बहता है। परिवार समाज एवं राष्ट्र में सर्वत्र शान्ति एवं आनन्द का अनुभव अहिंसा के द्वारा ही सम्भव है। सन्दर्भ:1. दशवकालिक, 1.1 सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर 2005, 2. (अ) सूत्रकृतांग 2.1 सूत्र 679, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण, 1991,
पृष्ठ-499 (ब) आचारांगसूत्र 1.4.2 सूत्र 138, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, द्वितीय संस्करण
1989, पृष्ठ-126 3. सूत्रकृतांग, 2.1.680, पृष्ठ-500 4. सूत्रकृतांग, 1.1.4.10, पृष्ठ-98 5. प्रश्नव्याकरण, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर,1983, 1.1, पृष्ठ-23 6. आचारांग सूत्र, 1.1.7, सूत्र 62 पृष्ठ-36 7. सूत्रकृतांग, 1.9.9 पृष्ठ-361 8. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।-तत्त्वार्थसूत्र, 7.8, पार्श्वनाथ विद्यापीठ,वाराणसी, 1985 9. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक 44, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम,
अगास, 1966 10. आचारांग सूत्र, 1.2.3- सूत्र 78 एवं 85, पृष्ठ-51 एवं 57 11. दशवैकालिक, 6.11, सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर,
चतुर्थ संस्करण, 2005, पृष्ठ-180 12. आचारांगसूत्र 1.5.5, सूत्र 170 पृष्ठ-186 13. आचारांगसूत्र, 1.1.5, सूत्र 45, पृष्ठ-26 14. इमं पि छिण्णं मिलाति एवं पि छिण्णं मिलासि, इमं पि आहारगं एवं पि आहारगं, इमं पि
अणितियं एयं पि अणितियं, इमं पि असासयं एवं पि असासयं, इमं पि चयोवचइयं एवं