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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
भी इनमें प्राणधारण के विकास की अपेक्षा भेद समझना होगा, अतः द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों को मांसाहार की श्रेणि में रखकर उनकी हिंसा को वनस्पति (शाकाहार) की अपेक्षा अधिक त्याज्य बताया गया है। इसलिए कोई मनुष्य के प्राण बचाने की अपेक्षा जल के प्राणों की चिन्ता करे तो यह अविवेक ही कहा जाएगा। दूसरी बात यह है कि मनुष्य के शरीर के आश्रित अनेक जीव रहते हैं। मनुष्य की हिंसा के साथ उन जीवों की भी हिंसा हो जाती है। विज्ञान की दृष्टि से कहें तो मनुष्य का शरीर असंख्य कोशिकाओं से निर्मित है, जबकि वनस्पति आदि में इतनी कोशिकाएं नहीं होती ।
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कतिपय विचारक दान, सेवा, परोपकार आदि पुण्य कार्यों का निषेध इसलिए करते हैं कि इन कार्यों में प्राणियों की हिंसा होती है। उनका यह चिन्तन मानवता के विरुद्ध है। उन्हें यह बात समझ लेनी चाहिए कि अप्काय के जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय मनुष्य का जीवन प्राणों एवं इन्द्रियों की अपेक्षा अधिक विकसित है । इसलिए अप्काय के असंख्य जीवों की हिंसा से भी अधिक पाप एक मनुष्य को मारने में है। शाकाहार के सम्बन्ध में भी यही तर्क है। वनस्पति के असंख्य जीवों की अपेक्षा एक पशु एवं मनुष्य का जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनुष्यों में भी जो ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के विकास की दृष्टि से अग्रणी हैं, वे अधिक महत्त्वपूर्ण है। मनुष्य एवं पशुओं से ऋषि की चेतना अधिक विकसित होती है। अतः अन्य प्राणियों की अपेक्षा ऋषि के हनन में अधिक पाप माना गया है- एगं इसिं हणमाणे अणंते जीव हणइ । ( भगवतीसूत्र 9.34 ) अर्थात् एक ऋषि को मारने वाला अनन्त जीवों को मारता है, किन्तु इसका यह आशय नहीं है कि अप्काय, वनस्पतिकाय आदि के एकेन्द्रिय जीवों की हम निष्प्रयोजन हिंसा करते रहें। इसका प्रयोजन इतना ही है कि हम चेतना के स्तर को पहचान कर हिंसा से बचें तथा जहाँ तक सम्भव हो हिंसा का अल्पीकरण करते हुए अहिंसा का निरवद्य रूप सुरक्षित रखें। प्राणों की अपेक्षा, चेतना के विकास की अपेक्षा तथा मनुष्य समाज में उपयोगिता की अपेक्षा से भी प्राणियों के रक्षण में भेद सम्भव है।
भावों के स्तर पर हिंसा न हो, अहिंसा के इस विशुद्ध रूप की स्थापना एवं संवर्धन के लिए दया, करुणा, अनुकम्पा, दान, सहानुभूति आदि सकारात्मक भावों