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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
हिंसा अहित एवं अबोधि की सूचक है। हिंसा में हित नहीं अहित समाया हुआ है तथा हिंसा के कारण चित्त में जड़ता आने से अज्ञानता पुष्ट होती रहती है। कई लोग हिंसा में अपना हित समझते हैं, किन्तु आचारांगसूत्र उनकी इस गलत धारणा का खण्डन करता हुआ स्पष्ट करता है कि हिंसा कभी हितकारिणी नहीं हो सकती। उससे न आत्महित होता है न परहित। वह ज्ञान की नहीं अज्ञान की सूचक है।
यह प्राणिलोक आर्त है, परिजीर्ण है, अज्ञान से ग्रस्त होने के कारण इसे समझाना कठिन है। अतः लोक में प्राणी बहुत दुःखी हैं- बहुदुक्खा हु जंतवो।" दुःख का एक कारण तो कामनाओं में आसक्ति है तथा दूसरा कारण इन कामनाओं की पूर्ति के लिए की जा रही हिंसा है। अपनी कामनाएँ पूर्ण करने के लिए एक प्राणी दूसरे प्राणी को क्लेश या दुःख देता है। नरक के जीव परस्पर एक दूसरे को दुःख देते हैं, कुछ वैसी ही स्थिति इस मनुष्य लोक में नज़र आ रही है। यहाँ भी एक-दूसरे को दुःख देने वाले लोगों की कमी नहीं है। अज्ञान के कारण ऐसा होता है। ऐसे अज्ञानी दुर्बोध्य होते हैं, तथापि समझाने का प्रयत्न जारी रखना चाहिए। .. जहाँ हिंसा व्याप्त होती है, जहाँ एक जीव अन्य जीव को मारने या दुःखी करने के लिए उद्यत होता है वहाँ भय का वातावरण बन जाता है। आचारांग कहता है"पाणा पाणे किलेस्संति।पास लोए महब्भयं।" प्राणी प्राणियों को कष्ट देते हैं। लोक को देखो, यहाँ महान् भय है। इस भय से बचने के लिए हिंसा का त्याग अनिवार्य है। आज आतंकवादियों, लुटेरों, चोरों, उचक्कों आदि के कारण तो मानव भयाक्रान्त है ही, किन्तु वह आज घर में रहने वाले नौकरों, निकट के रिश्तेदारों, परिवार के सदस्यों एवं प्रतिस्पर्धियों से भी भयभीत रहता है। इस भय का निवारण पारस्परिक प्रेम, मैत्री एवं सहयोग के माध्यम से किया जा सकता है।
वैर-विरोध एवं भय पर विजय प्राप्त करने के लिए हिंसा को उपाय नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि खून से सने वस्त्र को खून से स्वच्छ नहीं किया जा सकता। इसके लिए अहिंसा ही श्रेयस्कर उपाय है। हिंसा आतंककारिणी है। आतंक पीडाकारी होता है। वह मनुष्य की स्वतन्त्रता और सुखी जीवन-पद्धति को बाधित करता है। अतः आतंक से छुटकारा पाने के लिए अहिंसा का आश्रय उपयोगी है।