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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
वीतरागियों में ही संभव है। यह अहिंसा का उत्कृष्ट रूप है। द्वितीय रूप महाव्रतधारी उन श्रमण-श्रमणियों में उपलब्ध होता है जो तीन करण एवं तीन योगों से हिंसा के त्यागी होते हैं। अहिंसा का तृतीय रूप अणुव्रत के रूप में श्रावक-श्राविका स्वीकार करते हैं। इसमें सभी निरपराध त्रस जीवों के हनन रूप हिंसा का त्याग किया जाता है। इस तरह हिंसा का अभाव भी अहिंसा है तथा हिंसा का अल्पीकरण भी अहिंसा है। अहिंसा का जितने स्तर पर पालन किया जाय, उतना लाभकारी है। इसलिए हिंसा से बचने में ही सबका हित निहित है।
अहिंसा का पालन एवं हिंसा का त्याग यद्यपि आधुनिक युग की महती आवश्यकता है, तथापि जैनागमों में इसके लिए किस प्रकार के तर्क दिए गए हैं, उनका अध्ययन ही प्रस्तुत निबन्ध का प्रमुख प्रतिपाद्य विषय है। जैन प्रमाणमीमांसा के अन्तर्गत प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दो प्रमाण प्रतिपादित हैं। परोक्ष प्रमाण में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान एवं आगम प्रमाण का समोवश होता है। प्रस्तुत प्रसंग में मुख्यतः तर्क एवं आगम-प्रमाण का अवलम्बन लेकर अहिंसा के औचित्य की स्थापना आगमों के आधार पर की जा रही है1. जीवन सबको प्रिय है __ आचारांग सूत्र में स्पष्ट प्रतिपादन है कि सभी प्राणी जीना चाहते हैं, सबको आयुष्य प्रिय है, सबको सुख अनुकूल एवं दुःख प्रतिकूल लगता है। वध सबको अप्रिय एवं जीवन प्रिय है। सभी जीवन की इच्छा रखते हैं। इसलिए किसी भी जीव का अतिपात नहीं करना चाहिए, यथा - 'सव्वे पाणा पिआउया, सहसाता दुक्खपडिकूला, अप्पियवधा, पियजीविणो जीवितुकामा। सव्वेसिं जीवितं पियं। नातिवातेज्जं कंचणं। दशवैकालिक सूत्र में भी कहा गया है - 'सव्वे जीवावि इच्छंति जीविउंन मरिज्जिङ, तम्हापाणिवहोघोरं, निग्गंथावज्जयंतिणं।"" हिंसा या तो प्राणी के जीवन को समाप्त कर देती है या उसमें असाता अथवा दुःख उत्पन्न करने में निमित्त होती है। इसलिए सब जीवों की भावना का आदर करते हुए उनकी हिंसा नहीं की जानी चाहिए। आचारांग सूत्र की इस युक्ति से प्रत्येक प्राणी के जीने के अधिकार की भी स्थापना होती है। आधुनिक युग में मानवाधिकार के अन्तर्गत मनुष्य को ही जीने का अधिकार प्रदत्त है, अन्य प्राणियों को नहीं। महावीर की