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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
अशान्त करने योग्य समझते हो। इन वाक्यों में मनुष्य की संवेदनशीलता को गहरा किया गया है एवं हननीय, शासनीय, परितापनीय आदि के रूप में देखे जाने वाले प्राणियों को अपने समान समझने तथा उनके स्थान पर अपने को रख कर देखने की प्रेरणा की गई है।
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आचारांग सूत्र में वनस्पति एवं मनुष्य में जो समानता निरूपित की गई है, वह भगवान महावीर की वैज्ञानिकता, संवेदनशीलता एवं सूक्ष्मदृष्टि की परिचायक है। वहाँ पर निगदित है कि जिस प्रकार मनुष्य उत्पत्ति स्वभाव वाला, वृद्धि स्वभाव वाला एवं चेतनाशील है उसी प्रकार वनस्पति भी उत्पन्न होती है, बढ़ती है एवं चेतनाशील है।” जगदीशचन्द्र बसु के प्रयोगों के पश्चात् समस्त विश्व वनस्पति में चेतना स्वीकार करने लगा है, किन्तु प्रभु महावीर ने 2600 वर्ष पूर्व यह तथ्य उद्घाटित कर दिया था। तीर्थंकर महावीर ने यह भी कहा कि जिस प्रकार मनुष्य को छेदा जाय तो वह म्लान होता है उसी प्रकार वनस्पति भी छेदे जाने पर म्लान होती है। मनुष्य जैसे आहार करता है वैसे वनस्पति भी आहार करती है। दोनों अनित्य, अशाश्वत, चयोपचय वाले एवं विपरिणाम धर्मी हैं।
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सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया कि - से जहा नामए मम अस्सायं दंडेण वा अट्ठीण वा मुठ्ठीण वा, लूण वा कवालेण वा, आउडिज्जमाणस्स वा, हम्ममाणस्स वा तज्जिज्जमाणस्स वा ताडिज्जमाणस्स वा परिताविज्जमाणस्स वा किलामिज्जमाणस्स वा उद्दविज्जमाणस्स वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेमि, इच्चेवं जाव सव्वे पाणा जाव सत्ता दंडेण वा जाव कवालेण वा आउडिज्जमाणा वा हम्ममाणा वा तज्जिज्जमाणा वा ताडिज्जमाणा वा परियाविज्जमाणा वा किलामिज्जमाणा वा उद्दविज्जमाणा वा जाव लोमुक्खणणमातमवि हिंसाकरं दुक्खं भयं पडिसंवेदेति । एवं णच्चा सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेत्तव्वा, व परितावेयव्वा, उद्दवेयव्वा । s
अर्थात् जिस प्रकार कोई मुझे दण्ड से, हड्डी से, मुष्टि से, पत्थर से या ठीकरी से मारे, तर्जना दे, ताड़ना दे, परिताप दे, खिन्नता उत्पन्न करे, अशान्त करे यावत् रोम उखाड़े तो मुझे कितनी असाता, हिंसाकारी दुःख एवं भय का अनुभव होता है।