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आचारांगसूत्र में अहिंसा
अहिंसक जीवन शैली के उपाय
अब प्रश्न यह है कि हिंसा पर नियन्त्रण किस प्रकार किया जाए ? हिंसा पर नियन्त्रण करने के लिए आचारांगसूत्र में हमें अनेकविध समाधान प्राप्त होते हैं। उनमें सबसे प्रमुख है कि जो भी क्रिया करें उसे ज्ञानपूर्वक करें। उस क्रिया का क्या फल होगा, यह जानने का प्रयत्न करें। हिंसा कभी अनजाने में होती है तो कभी जानबूझ कर की जाती है। अनजाने में हिंसा करना तो अज्ञान का सूचक है ही, हिंसा को जानबूझकर करना भी मिथ्याज्ञान या गलत ज्ञान रूप अज्ञान का सूचक है। अल्पज्ञान में हिंसा करना भी अज्ञान ही है। बिना प्रयोजन के भी लोग हिंसा करते रहते हैं, वह हिंसा भी अज्ञान के कारण होती है। इसलिए आचारांगसूत्र में कहा है- से हु पन्नाणमंते बुद्धे आरम्भोवरए ।" जो हिंसा से उपरत है वह ज्ञानवान् एवं बोधिप्राप्त है। ज्ञानी किसी की हिंसा नहीं करता - एयं खु नाणिणो सारं, जंन हिंसइ किंचण ।” ज्ञानी होने का सार ही यह है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता है। प्रयत्नपूर्वक यद्यपि किसी को ज्ञानी नहीं बनाया जा सकता, तथापि जनचेतना जागृत कर हिंसा की अनेक प्रवृत्तियों को रोका जा सकता है तथा हिंसा का अल्पीकरण किया जा सकता है। जो हिंसा अनजाने में हो रही है, अथवा गलत ज्ञान के कारण हो रही है, उसे रोका जा सकता है। आज सौन्दर्यप्रसाधनों के निर्माण में कितनी हिंसा हो रही है, इसकी जानकारी आम व्यक्तियों को नहीं है। जानकारी होने पर कुछ कमी आना सम्भव है।
इसलिए आचारांग में कहा गया है कि कर्मसमारम्भ का ज्ञान करके हिंसा को रोका जाए। जो परिज्ञात कर्मा होता है वह कर्म समारम्भ से उपरत होता है । " जो प्राणियों की हिंसा में लगा रहता है वह अपरिज्ञातकर्मा है। परिज्ञातकर्मा पुरुष विविध प्रकार की स्वैच्छिक हिंसा को नियन्त्रित कर सकता है। हिंसा के दोषों की जानकारी से विश्व में अहिंसा के प्रति आस्था बढ़ सकती है एवं बढ़ी है।
हिंसा से विरत होने का अन्य उपाय है- प्रमाद का त्याग। यह प्रमाद ज्ञानी को भी होता है एवं अज्ञानी को भी। अज्ञानी तो आत्मस्वरूप से विस्मृत होने के कारण प्रायः प्रमाद में ही जीता है। वह विषयों के प्रति आसक्त होता है । आचारांगसूत्र इस प्रमाद की ओर ध्यान आकर्षित करता है। वहाँ कहा गया है कि विषयों का
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