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अहिंसा का समाज दर्शन
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के विकास की आवश्यकता है। ये सकारात्मक भाव हिंसा को तो रोकते ही हैं, अन्य प्राणियों के प्रति मैत्री, सहयोग एवं सौहार्द के भावों का भी विकास करते हैं। आत्मवद्भाव एवं मैत्रीभाव
भगवान महावीर ने अहिंसा का उपदेश प्राणिमात्र की चेतना से जुड़कर किया। उनके उपदेशों में सभी प्राणियों के प्रति करुणा एवं आत्मीयता का स्रोत फूट पड़ा है। उन्होंने सभी जीवों के प्रति आत्मवद्भाव या आत्मतुला का सिद्धान्त दियाआयतुले पयासु (सूत्रकृतांग 1.10.3), अपने समान दूसरों को देखो। आत्तओ पासइसव्वलोए( सूत्रकृतांग1.12.15 )अपने समान सर्वलोक को देखता है।
आचारांग चूर्णि में कहा गया है-जह मे इट्ठाणिठे सुहासुहे तह सव्वजीवाणं (आचारांग चूर्णि 1.1.6) जिस प्रकार मुझे सुख इष्ट एवं दुःख अनिष्ट है, उसी प्रकार सब जीवों को सुख इष्ट एवं दुःख अनिष्ट होता है। भगवान ने जीवमात्र के प्रति मैत्री का उपदेश दिया-"मित्तिं भूएसुकप्पए।"(उत्तराध्ययन-सूत्र, 6.2 )
मैत्री एवं कारुण्य भावनाएँ अहिंसादि व्रतों के पालन में सहायक हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है- मैत्री-प्रमोद-कारुण्यमाध्यस्थ्यानि चसत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु।-(तत्त्वार्थसूत्र, 7.11)
समस्त प्राणियों के प्रति मित्रता का भाव होना चाहिए। 'मित्ती मे सव्वभूएसु' (आवश्यकसूत्र ) पंक्ति में भी यही बात कही गई है। मैत्री हमें तो निर्मल बनाती ही है, किन्तु दूसरों के प्रति अहिंसक आचरण की प्रेरणा भी देती है। इसीलिए उसे अहिंसादि व्रतों के पालन में सहायक माना गया है। दीन-दुःखियों के प्रति अथवा कष्ट पा रहे जीवों के प्रति करुणा भाव हो, यह भी संदेश इस सूत्र से मिलता है। गुणीजनों के प्रति प्रमोद एवं अविनीतों के प्रति समता का भाव भी अहिंसादि व्रतों के पालन में सहायक है। सकारात्मक अहिंसा
हिंसा-निषेध के साथ आगम वाङ्मय में अहिंसा का सकारात्मक स्वरूप भी उजागर हुआ है, जो अहिंसा के समाजदर्शन को पुष्ट करता है। आगम वाङ्मय में सकारात्मक अहिंसा के द्योतक विभिन्न शब्द प्रयुक्त हुए हैं, यथा- दया, करुणा,