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आचारांगसूत्र में अहिंसा
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स्वाभाविक अभिवृत्ति एवं उनके जीने की अभिलाषा अहिंसा के माध्यम से ही सुरक्षित रह सकती है। अतः समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों एवं सभी सत्त्वों* का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर बलात् आदेश देकर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें गुलाम नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए तथा उन्हें अशान्त नहीं बनाना चाहिए- अहिंसा की ऐसी प्ररूपणा अतीत-वर्तमान-भविष्य काल के सभी अर्हन्त भगवन्तों द्वारा की गई है, की जा रही है एवं की जाएगी। यह अहिंसाधर्म शुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है तथा समस्त लोक को ध्यान में रखकर क्षेत्रज्ञों (आत्मज्ञों) के द्वारा प्ररूपित किया गया है।' अहिंसा का यह उपदेश उन लोगों के लिए भी है जो इसे सुनने के लिए तत्पर नहीं हैं, उपस्थित नहीं हैं, हिंसा से उपरत नहीं हैं, हिंसा के साधनों से युक्त हैं तथा विभिन्न वस्तुओं के संयोगों में रत हैं।'
आज हिंसात्मक व्यवहार के कारण मनुष्य की मनुष्य से दूरियाँ बढ़ रही हैं, परिवार विघटित हो रहे हैं। पति-पत्नी में तलाक की संख्या बढ़ रही है, भाई-भाई, सास-बहू आदि सबके रिश्तों में खटास व्याप्त हो रही है। अन्य प्राणियों के प्रति भी संवेदनशीलता समाप्त हो रही है। आहार, सौन्दर्य प्रसाधन एवं अन्य कार्यों के लिए विश्वस्तर पर प्राणियों की हिंसा हो रही है।
भगवान महावीर ने छोटे-से-छोटे प्राणी में भी चेतना एवं संवेदनशीलता का साक्षात्कार किया। आचारांग सूत्र में वनस्पति एवं मनुष्य में की गई तुलना इसका प्रमाण है। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, वनस्पति भी जन्म लेती है, जिस प्रकार मनुष्य वृद्धि को प्राप्त करता है, वनस्पति भी वृद्धि को प्राप्त होती है। जिस प्रकार मनुष्य चेतनायुक्त है, उसी प्रकार वनस्पति भी चेतनायुक्त है। जिस प्रकार मनुष्य का शरीर छिन्न होने पर म्लान होता है, वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। मनुष्य का शरीर जिस प्रकार अनित्य एवं अशाश्वत है *द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीवों को प्राण, पंचेन्द्रिय जीवों को जीव, वनस्पतिकायिक जीवों को भूत एवं अप्कायिक आदि शेष जीवों को आचार्य शीलांक ने सत्त्व कहा है
'प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रियाः प्रोक्ता, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः।।'
-आराचारांग, शीलांक टीका, पत्रांक 64