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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
स्पर्शन आदि इन्द्रियों से अशक्तता का अनुभव करने पर भी नहीं चेतता, यह उसकी भूल है। वय बीतती जाती है, यौवन भी बीत जाता है-"वओ अच्चेति जोव्वणंच।" कोई यह माने कि मृत्यु मेरी नहीं दूसरों की ही होती रहेगी तो यह उसकी भूल अथवा प्रमाद है। ऐसे व्यक्ति को सावधान करते हुए आचारांग में कहा गया है- "णाणागमो मच्चुमुहस्स अस्थि।" मृत्यु नहीं आयेगी, ऐसा नहीं है। वह एक दिन अवश्य आएगी, अतः आँख मूंदकर उसकी उपेक्षा करना उचित नहीं। निर्भय बनने के लिए, परम सुख को प्राप्त करने के लिए, संसार के दुःखों से सदा के लिए छुटकारा पाने के लिए भी प्रमाद का त्याग अनिवार्य है। प्रमाद एक प्रकार की बाधा है, जिसे सजगता से दूर किया जाना आवश्यक है। दोष रहित होने के लिए भी अप्रमत्तता उपयोगी है। अप्रमत्त कौन?
अप्रमत्त वही हो सकता है जिसकी दृष्टि सत्य पर हो । सत्य को जानने और उसका आचरण करने के प्रति तत्पर व्यक्ति ही अप्रमत्त जीवन जी सकता है। इसलिये आचारांगसूत्र में बार-बार सत्य को जानने के लिए प्रेरित किया गया है"सच्चमि धितिं कुव्वह। एत्थोवरए मेहावी सव्वं पावं कम्मं झोसेति।" हे साधक! सत्य में धैर्य रखो । जो सत्यनिष्ठ होता है वह मेधावी पुरुष समस्त पाप कर्मो का क्षय कर देता है। आचारांग में ही कहा गया है-"पुरिसा।सच्चमेव समभिजाणाहि! सच्चस्स आणाए से उवट्ठिए मेधावी मारं तरति।" हे पुरुषों! सत्य को जानो। जो सत्य की आज्ञा में उपस्थित होता है वह मेधावी मृत्यु को तैर जाता है। जो सत्यनिष्ठ होता है वह दूसरों का निग्रह करने की अपेक्षा स्वयं का निग्रह करता है और स्वयं का निग्रह करने वाला साधक दुःख से मुक्त हो सकता है।
सत्यनिष्ठ ज्ञानी साधक कभी प्रमाद नहीं करता। वह सर्वोच्च लक्ष्य के प्रति सजग रहता है- "अणण्ण परमं णाणी णो पमादे कयाइ वि। आयगुत्ते सदा वीरे जायामायाए जावए। अपने सर्वोच्च आत्म-लक्ष्य के प्रति सजग रहने वाला साधक आत्मनिग्रही होता है तथा अपनी संयम यात्रा का निर्वाह आत्मगुप्त होकर करता है। वह दूसरों से युद्ध करने की अपेक्षा स्वयं पर विजय प्राप्त करने के लिए सजग रहता है।