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अहिंसा का समाज दर्शन
अर्थात् सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है, सबको सुख अनुकूल लगता है तथा दुःख प्रतिकूल लगता है। सभी प्राणियों को वध अप्रिय है, सबको जीवन प्रिय है, सब जीना चाहते हैं। भगवान् महावीर के ये वचन अहिंसा को सामाजिक एवं मानवीय रूप प्रदान करते हैं। यह अहिंसा प्राणिमात्र से जुड़ी हुई है । यही अहिंसा के समाज-दर्शन का मूल है।
सूत्रकृतांगसूत्र (2.1 सूत्र 679 ) में भी आचारांगसूत्र की अनुगूंज है। वहाँ मनुष्य को प्राणिमात्र के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु कहा है- "जिस प्रकार मुझे डंडे से, मुट्ठि से, अस्थि से, ढेले से अथवा कपाल से कोई चोट पहुँचाता है, तर्जना देता है, पीटता है, परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है, विनाश करता है अथवा एक रोम भी उखाड़ता है तो मुझे हिंसाकारी दुःख एवं भय की वेदना ( अनुभूति) होती है। इसी प्रकार समस्त जीवों को जानो । समस्त जीव, भूत, प्राण एवं सत्त्व को डंडे आदि किसी भी साधन से पीड़ा पहुँचाने, मारने, पीटने, परिताप देने, खिन्न करने, रोम उखाड़ने आदि से उसे दुःख एवं भय का वेदन होता है। इसलिए यह जानकर किसी भी प्राणी को नहीं मारना, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, अपने अधीन नहीं बनाना चाहिए, परिताप नहीं देना चाहिए तथा पीड़ित नहीं करना चाहिए।
इस प्रकार सूत्रकृतांग में निरूपित अहिंसा का यह दर्शन प्राणी को दूसरों के दुःख के प्रति संवेदनशील बनाता है। दूसरों के दुःख के प्रति संवेदनशील होकर ही उनके प्रति की जा रही हिंसा से बचा जा सकता है।
समाज में व्यापक स्तर पर योजनाबद्ध तरीके से जो हिंसा हो रही है, चाहे वह हिंसा आतंकवाद के रूप में हो, शोषण के रूप में हो अथवा किसी अन्य रूप में हो; उस हिंसा को रोकने के लिए आवश्यक है दूसरों के दुःख के प्रति संवेदनशीलता का विकास। जिस प्रकार प्रताड़ित किए जाने, मारे जाने पर, कष्ट दिए जाने पर मुझे दुःख होता है उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी दुःख होता है, जब तक मनुष्य में यह भावना नहीं आयेगी तब तक अहिंसा का सामाजिक पक्ष पुष्ट नहीं हो सकता। मुझे जिस प्रकार जीवन प्यारा है उसी प्रकार अन्य प्राणी भी जीना चाहते हैं। 'सव्वेसिं जीवितं पियं' आचारांग का यह वाक्य अपने समान अन्य प्राणियों को