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कारण- कार्य सिद्धान्त एवं पंचकारण-समवाय
न्याय-वैशेषिक आदि दर्शन कर्मों का फल प्रदाता ईश्वर को मानते हैं, जबकि जैन, बौद्ध आदि दर्शन इनकी फल प्राप्ति को स्वतः व्यवस्थापित मानते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि कर्म-सिद्धान्त को लेकर जितना चिन्तन जैनदर्शन में हुआ है, उतना किसी अन्य दर्शन में प्राप्त नहीं होता । ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि अष्टविध कर्मों, करण- सिद्धान्त तथा पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, बंध - निर्जरा एवं मोक्ष सदृश तत्त्वों का प्रतिपादन जैनदर्शन का वैशिष्ट्य है जो कर्म - पुद्गलों के बंधन एवं विमोचन की प्रक्रिया को स्पष्ट करता है । पूर्वकृत कर्मों से ही दैव अथवा भाग्य का निर्माण होता है।
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कर्म के साथ पुनर्जन्म का अटूट सम्बन्ध है । इसकी पुष्टि कठोपनिषद्, " बृहदारण्यकोपनिषद, छान्दोग्योपनिषद्, पुराण - साहित्य, रामायण एवं महाभारत सदृश ग्रन्थों से भी होती है। जैन एवं बौद्ध दर्शन के ग्रन्थ तो पुनर्जन्म को स्पष्ट करते ही हैं, किन्तु चार्वाकदर्शन के अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शन पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। उपनिषदों में कर्म - सिद्धान्त का प्रतिपादन है, इसकी पुष्टि विभिन्न वाक्यों से होती है। "कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुच्यते ।' 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः "7 आदि ऐसे ही वाक्य हैं। रामायण में कहा है"यादृशं कुरुते कर्म तादृशं फलमश्नुते ।"" अर्थात् जो जैसा कर्म करता है उसे वैसा फल प्राप्त होता है। भगवद्गीता में अनासक्त कर्मयोग का प्रतिपादन है, जिसके अनुसार फलाकांक्षा से रहित होकर कर्म किया जाना चाहिए। "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन" (भगवद्गीता, 2.47 ) वाक्य यही संदेश देता है । फलेच्छा में आसक्ति रखने वाला व्यक्ति सदा कर्मों से बंधता है।
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संस्कृत-साहित्य में पूर्वकृतकर्म को दैव या भाग्य कहा गया है तथा उसके अनुसार फलप्राप्ति अंगीकार की गई है । शुक्रनीति में पूर्वजन्म कृत कर्म को भाग्य तथा इस जन्म में किए गए कर्म को पुरुषार्थ कहा है, " किन्तु भाग्य एवं पुरुषार्थ का दायरा इससे व्यापक है, क्योंकि इस जन्म में किया गया कर्म भी भाग्य को प्रभावित करता है। स्वप्नवासवदत्तम् में "कालक्रमेण जगतः परिवर्तमाना चक्रारपंक्तिरिव भाग्यपंक्तिः " तथा मेघदूत में "नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण" आदि वाक्य भी पूर्वकृतकर्म अथवा भाग्य के स्वरूप को प्रकट करते हैं। भर्तृहरि विरचित