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नय एवं निक्षेप
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को समझकर जब कोई श्रोता प्रत्युत्तर देता है तो संवाद चल पाता है। यदि वक्ता के अभिप्राय को समझे बिना प्रत्युत्तर दिया जाए तो संवाद नहीं चल पाता, विवाद अवश्य खड़ा हो सकता है।
जगत् का एवं उसमें विद्यमान किसी भी वस्तु या व्यक्ति के सम्बन्ध में ज्ञान किसी अपेक्षा विशेष से ही होता है। यह अपेक्षा विशेष ही नय है। एक साथ हम किसी व्यक्ति के बारे में सभी अपेक्षाओं से ज्ञान नहीं कर सकते । यहाँ यह बात ध्यान देने की है कि नय सिद्धान्त में किसी एक नय से ज्ञान करने पर अन्य नयों की उपेक्षा नहीं की जाती अथवा उन नयों का प्रतिकार नहीं किया जाता । जिस प्रकार एक नय सही है उसी प्रकार किसी अपेक्षा से अन्य नय भी सही हो सकते हैं । यहाँ प्रसंग या विवक्षा का महत्त्व होता है कि हम किस प्रसंग में किस नय को प्राथमिकता देते हैं अथवा किस नय को प्रधान एवं अन्य नयों को गौण बनाना चाहते हैं। प्रमाण एवं नय में भेद __ प्रमाण भी जानने का साधन है तथा नय भी, किन्तु प्रमाण का क्षेत्र नय के क्षेत्र की अपेक्षा व्यापक है। प्रमाण में मति-श्रुत-अवधि-मनःपर्यव एवं केवल इन पांचों ज्ञानों का समावेश होता है अर्थात् इनमें से कोई भी ज्ञान प्रमाण हो सकता है, किन्तु नय को जैनाचार्यों ने श्रुतज्ञान के विषय तक सीमित रखा है, जैसा कि नय की निम्नांकित परिभाषा एवं कथन से ज्ञात होता है1. नीयते येन श्रुताख्यप्रमाणविषयीकृतस्यार्थस्यांशस्तदितरांशौदासीन्यतः स
प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषोनयः । -प्रमाणनयतत्त्वालोक 7.1
श्रुतज्ञान नामक प्रमाण के द्वारा विषय किए गए पदार्थ के अंश का उसके अन्य अंशों के प्रति उदासीन रहकर जिसके द्वारा ज्ञान कराया जाता है, प्रतिपत्ता का वह अभिप्राय विशेष नय कहलाता है।
यहाँ पर यह विचारणीय है कि क्या नय-ज्ञान के पूर्व प्रमाण ज्ञान का होना आवश्यक है? यदि पहले प्रमाण द्वारा जान लिया गया है तो नय से जानने की जिज्ञासा कहाँ शेष रहेगी? क्योंकि यह माना गया है कि नय के द्वारा वस्तु के एक अंश को जाना जाता है तथा प्रमाण के द्वारा वस्तु के सम्पूर्ण अंश को जाना जाता