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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
करने की जो शैली रही है उसे भी द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों में वर्गीकृत किया जा सकता है। द्रव्य का द्रव्यार्थिक नय में तथा क्षेत्र, काल एवं भाव का समावेश पर्यायार्थिक नय में हो सकता है।
वस्तु की नित्यता का प्रतिपादन द्रव्यार्थिकनय से किया जाता है तथा अनित्यता का प्रतिपादन पर्यायार्थिकनय से किया जाता है। द्रव्यार्थिक नय अभेदगामी है तथा पर्यायार्थिक नय भेदगामी है। दूसरे शब्दों में द्रव्यार्थिक नय एकत्वगामी तथा पर्यायार्थिक नय अनेकत्वगामी है। एक ही वस्तु का इन दोनों दृष्टियों से विवेचन करने में विरोधी धर्मों नित्यता एवं अनित्यता का, भेद-अभेद का, एकत्व-अनेकत्व का समन्वय हो जाता है। तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्द ने प्रश्न उठाया है कि द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय के साथ गुणार्थिक नय का पृथक् कथन क्यों नहीं किया गया? इसके उत्तर में उनका कथन है कि गुणों का समावेश भी यहाँ पर्यायों में हो जाता है, इसलिए गुणार्थिक नय का पृथक् कथन करने की आवश्यकता नहीं है।
द्रव्यार्थिक (द्रव्यास्तिक) एवं पर्यायार्थिक (पर्यायास्तिक) नय ही प्रमुख नय हैं। नैगम आदि सात नयों में से नैगम, संग्रह एवं व्यवहार नय को द्रव्यार्थिक नय के अन्तर्गत तथा ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवम्भूत को पर्यायार्थिक नय के अन्तर्गत विभक्त किया जाता है। सप्तविध नय
नय के प्रसिद्ध सात प्रकारों का स्वरूप यहाँ संक्षेप में प्रस्तुत है1. नैगम नय
'नैगम' शब्द 'निगम' शब्द से बना है। 'निगम' का अर्थ है वसति (बस्ती)। अनुयोगद्वार सूत्र में वसति के दृष्टान्त से नैगम नय को समझाया गया है तथा इसके तीन भेद किए गए हैं- 1. अशुद्ध नैगम नय 2. विशुद्ध नैगम नय 3. विशुद्धतर नैगम नय । कोई पुरुष पूछता है- आप कहाँ रहते हो? उत्तर दाता कहता है- लोक में रहता हूँ। यह अशुद्ध नैगम नय है। यद्यपि उत्तरदाता लोक में ही रहता है, किन्तु प्रश्न कर्ता के अभिप्राय को यह उत्तर सत्य होते हुए भी संतुष्ट नहीं करता है। फिर वह कहता है मैं तिर्यक् लोक में रहता हूँ। यह उत्तर वास्तविक वसति से कुछ निकट