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आचारांग सूत्र में अप्रमत्त जीवन की प्रेरणा
वीतराग पथ के साधक के लिए किस प्रकार की साधना आवश्यक है एवं किस प्रकार वह आध्यात्मिक निर्मलता की सीढ़ियाँ चढ़ सकता है, इसका सुन्दर निरूपण आचारांग सूत्र में सम्प्राप्त है। इस आगम में भगवान महावीर की वाणी का मौलिक रूप उपलब्ध है। यह साधकों का मार्ग प्रशस्त करने वाला उत्तम आगम है। अप्रमत्त साधना के अनेक सूत्र साधक इस आगम से आत्मसात् कर सकते हैं। मनुष्य प्रायः प्रमाद में जीता है। प्रमत्त जीवन ही उसे अच्छा लगता है। उसकी चित्तवृत्तियों में प्रमाद का प्रभाव छलकता रहता है। प्रमाद अज्ञानी व्यक्ति में भी होता है, तो ज्ञानी व्यक्ति में भी। अज्ञानी में प्रमाद का होना स्वाभाविक है, क्योंकि उसका आत्मस्वरूप से परिचय ही नहीं होता, विषयों से कभी वह विमुख ही नहीं हुआ, अतः उसमें प्रमाद का होना अवश्यम्भावी है, किन्तु आध्यात्मिक उन्नयन के प्रति चरण बढ़ाते हुए ज्ञानी व्यक्ति में भी प्रमाद का डंक लग जाता है। परिणामस्वरूप वह व्यक्ति ऊपर चढ़ते हुए गुणस्थानों से नीचे गिर जाता है। उपशान्त मोह नामक ग्यारहवां गुणस्थान इसका उदाहरण है।
अज्ञानी का प्रमाद __ साधारणतः आत्मस्वरूप के विस्मरण को प्रमाद कहा जाता है। प्रमाद को अनेक प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। किसी सत्य को जानते हुए भी उसे स्वीकार न करना प्रमाद का एक रूप है। अज्ञानी या मिथ्यात्वी व्यक्ति में प्रायः इस प्रकार का प्रमाद होता है। इस प्रमाद के कारण ही वह पर पदार्थों से सुख चाहता है। उनके प्रति आसक्त होता है एवं परिणाम में दुःख प्राप्त करता है। आचारांगसूत्र में कहा गया है-"इति से गुणट्टी महता परितावेण वसे पमत्ते।" विषयसुखों की चाहना करने वाला व्यक्ति प्रमत्त होकर परिताप को प्राप्त करता है । आचारांग के इस वाक्य से स्पष्ट है कि इन्द्रियजनित विषयसुखों की इच्छा करना प्रमत्तता का सूचक है । ऐसा व्यक्ति अपने से भिन्न व्यक्ति और वस्तुओं के प्रति ममत्व करता है। ममत्व में भी सुख की इच्छा छिपी रहती है। संसार का यह सत्य है कि हम व्यवहार से भले ही परिवार में एक-दूसरे को अपना समझकर ममत्व करते हैं, किन्तु वास्तव में एक सीमा के पश्चात् कोई किसी का त्राण नहीं कर पाता है। फिर भी प्रमत्त