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आचारांग सूत्र में अप्रमत्त जीवन की प्रेरणा
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होकर व्यक्ति अपने रिश्ते नातों में आसक्त होकर अपने को भुलावे में रखता है तथा आत्मिक उन्नति से वंचित रहता है। आचारांग में कहा गया है-"तंजहा माया मे, पिता मे, भाया मे, भगिणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे सहि-सयण-संगंथ-संथुता मे, विवित्तोवगरण-परियट्टण-भोयण- अच्छायणं मे इच्चत्यं गढिए लोए वसे पमत्ते।" प्रमाद के वशीभूत होकर व्यक्ति सोचता है-यह मेरी माता है, यह मेरे पिता है, यह मेरा भाई है, यह मेरी बहिन है, यह मेरी पत्नी है, यह मेरे पुत्र हैं, ये मेरी पुत्रियाँ हैं, यह मेरी पुत्रवधू है, ये मेरे मित्रगण हैं, यह मेरे स्वजन हैं इस प्रकार उनके साथ आसक्ति उत्पन्न कर लेता है। व्यक्तियों के साथ ही नहीं, वस्तुओं के साथ भी उसकी आसक्ति हो जाती है । अनेक प्रकार की साधन-सामग्री, आवास, भोजन, वस्त्र आदि को अपना समझकर वह उनमें आसक्त हो जाता है तथा प्रमादयुक्त जीवन जीता है। आचारांगसूत्र इस प्रकार के जीवन को आध्यात्मिक शुद्धि की दृष्टि से उचित नहीं मानता। वह सावधान करता है- "णालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा, तुम पि तेसिंणालं ताणाए वा सरणाए वा।" अर्थात् वे सब सगे सम्बन्धी तुम्हें त्राण देने और शरण देने में समर्थ नहीं हैं और तुम भी उनको त्राण और शरण देने में समर्थ नहीं हो।
सुख-दुःख सबका अलग है-"जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सातं।" इस तथ्य को जानकर साधक अपने दुःख का कारण दूसरे को नहीं मानता। दूसरे के सुखी होने में भले ही वह निमित्त बन जाये, किन्तु उससे स्वयं में अहंकार उत्पन्न न हो, इसका ध्यान रखता है। प्रमत्त व्यक्ति सदा दुःख को प्राप्त करता है। आचारांगसूत्र कहता है कि ऐसे प्रमत्त व्यक्ति की आतुरता एवं दुःख को देखकर साधक को अप्रमत्ततापूर्वक रहना चाहिए-"पासियआतुरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए।
जो विषयों के प्रति गाढ़ आसक्त होता है वह दिन-रात परिताप को प्राप्त होता हुआ काल, अकाल में उनके संयोग के लिए उद्विग्न रहता है। वह अर्थ का लोभी होकर दूसरों की हिंसा करता है। बिना सोचे समझे कार्य करता है तथा बार-बार उसकी प्राप्ति में ही चित्त को लगाये रखता है। प्रमत्त व्यक्ति दूसरों की हिंसा करने में संकोच नहीं करता । उसे अपनी अभिलाषा अथवा महत्त्वाकांक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण नज़र आती है। उसके मन में यह भावना होती है कि जो अब तक नहीं