________________
नय एवं निक्षेप
247
भिन्नता है। वैसे ये सब पर्यायवाची भी हैं। इन पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति भेद से अर्थभेद कराने वाला नय ही समभिरूढ़ नय है। 7. एवम्भूत नय ___ शब्द के अर्थ के अनुसार क्रिया में प्रवृत्त होने पर उस शब्द का प्रयोग करना 'एवंभूत नय' है। जैसे- कोई सेवा कर रहा हो तभी सेवक कहना, प्रजा का पालन करने वाले को प्रजापति कहना, ऐश्वर्यशील को इन्द्र कहना, शची के साथ बैठे होने पर इन्द्र को शचीपति कहना आदि एवंभूत नय के उदाहरण हैं । समभिरूढ़ नय जहाँ निरुक्ति भेद से अर्थ भेद का ही प्रतिपादन करता है, वहाँ एवंभूत नय उस अर्थ के अनुसार क्रिया में परिणत पदार्थ का बोध कराता है।।
नैगम आदि सात नयों का प्रतिपादन वाक्यों का सही-सही अर्थ ग्रहण करने की दृष्टि से ही किया गया है। द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों का प्रतिपादन जहाँ आगम वाक्यों को ठीक से समझने में उपयोगी है, वहाँ उससे वस्तु या पदार्थों के स्वरूप को जानने में भी सरलता का अनुभव होता है। शब्दों या वाक्यों के माध्यम से होने वाला यह ज्ञान वस्तु को जानने में भी सहयोगी होता है। इस तरह श्रुतज्ञान से सम्बद्ध होते हुए भी नय सिद्धान्त का क्षेत्र श्रुतनिश्रित मतिज्ञान से जुड़ जाता है। यही नहीं, नयों का प्रयोग जीवन व्यवहार के साधारण वाक्यों में भी दिखाई देता है तथा हमारे जानने की प्रक्रिया में भी अलग-अलग प्रकार के दृष्टिकोण होते हैं जो एक प्रकार से नयों का ही प्रयोग है। नय प्रयोग में कभी धर्म, गुण या पर्याय की प्रधानता होती है, कभी द्रव्य अथवा वस्तु की प्रधानता होती है, कभी दो धर्मों, दो धर्मियों अथवा धर्म-धर्मी में गौण-प्रधान भाव का प्रयोग होता है। कभी वर्तमान पर्याय या धर्म की प्रधानता होती है तो कभी शब्दों के प्रयोग की भिन्नता से भी अर्थ में भेद का ज्ञान होता है। इन विभिन्नताओं के आधार पर ही नैगमादि सात नयों का प्रतिपादन किया गया है। अर्थनय एवं शब्दनय
उपर्युक्त सातों नयों में से प्रथम चार नय अर्थ प्रधान (वस्तु प्रधान) होने के कारण 'अर्थ नय' कहलाते हैं तथा शेष तीन नय शब्द प्रधान होने के कारण 'शब्द नय' कहे गए हैं।