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'इसिभासियाई' का दार्शनिक विवेचन
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की भांति कषायों के साथ युद्ध करे। जो साधक मन और कषायों को जीतकर सम्यक् प्रकार से तप करता है उसकी आत्मा शुद्ध होकर दीप्त होती है।
उद्दालक ऋषि कहते हैं कि व्यक्ति को आत्महित के लिए जागृत रहना चाहिए, जो मात्र परार्थ का अभिधारक होता है उसका आत्महित नहीं हो पाता।" स्वयं के घर में आग लगने पर दूसरों के घर की ओर दौड़ना उचित नहीं। पहले अपना घर सम्हालना चाहिए। स्व को एवं पर को सर्वभाव से सब प्रकार से जानना चाहिए। आत्मार्थी निर्जरा करता है तथा परार्थी कर्मबन्धन करता है। उद्दालक अध्ययन में सदा जागृत रहने तथा धर्माचरण में अप्रमत्त रहने का संदेश दिया गया है- जागरह णरा णिच्चं, मा भे धम्मचरणे पमत्ताणं। जो मुनि जागृत रहता है उससे दोष दूर ही रहते हैं।
छत्तीसवें तारायण अध्ययन में क्रोध विजय की प्रेरणा की गई है। क्रोध को अग्नि, अन्धकार, मृत्यु, विष, व्याधि, शत्रु, रज, जरा, हानि, भय, शोक, मोह, शल्य एवं पराजय कहा गया है। बाह्य अग्नि को तो जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु क्रोधाग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता। क्रोध रूपी ग्रह से अभिभूत व्यक्ति के सत्त्व (बल), बुद्धि (निर्णयशक्ति), मति (चिन्तनशक्ति), मेधा (प्रतिभा), गम्भीरता, सरलता आदि सब गुण निष्प्रभ हो जाते हैं। क्रोधाविष्ट व्यक्ति माता-पिता, गुरु, साधु, राजा, देवता आदि किसी को कुछ नहीं समझता। वह सबसे गाली-गलौज करने लगता है। क्रोध के कारण तप, संयम आदि नष्ट हो जाते हैं। इसलिए क्रोध का निग्रह करना आवश्यक है।
जिस प्रकार क्रोध कषाय से आत्मगुणों की हानि होती है, उसी प्रकार मान, माया एवं लोभ से आत्मगुणों की हानि होती है। अतः इन पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। उद्दालक अध्ययन में कहा गया है कि अज्ञान से विमूढात्मा क्रोध, मान, माया एवं लोभ के बाण से अपनी आत्मा को ही बींधता है। अर्थात् अपनी ही हानि करता है। 'योग'शब्द का प्रयोग
जैनदर्शन के प्राचीन ग्रन्थों एवं आगमों में 'योग' शब्द का प्रयोग प्रायः मन,