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'इसिभासियाई'का दार्शनिक विवेचन
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चतुर्थ अध्ययन में अंगर्षि का कथन है कि जिस ज्ञान के द्वारा मैं अपने प्रकट या एकान्त में कृत आर्य या अनार्य कर्मों को जानता हूँ वही ज्ञान अचल है, ध्रुव
इसिभासियाइं में हमें अनेकान्तवाद के बीज भी प्राप्त होते हैं। नवम अध्ययन 'महाकाश्यप' में संसारस्थ जीवों के लिए कहा गया है कि वे द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की दृष्टि से नित्यानित्य हैं
दव्वतोखेत्ततोचेव, कालतोभावतोतहा।
णिच्चाणिच्चंतुविण्णेयं, संसारे सव्वदेहिणं।" कतिपय अध्ययनों में जिन प्रज्ञप्त मार्ग की श्रेष्ठता का प्रतिपादन हुआ है। महाकाश्यप अध्ययन में कहा गया है
गंभीरंसव्वतोभदं, सव्वभावविभावणं।
धण्णाजिणाहितंमग्गं, सम्मंवेदॆतिभावतो।।" वे लोग धन्य हैं, जो जिनेन्द्रों द्वारा प्ररूपित गम्भीर, सर्वतोभद्र, सर्वपदार्थ प्रकाशक मार्ग को भावपूर्वक सम्यक् रूप से जानते हैं एवं आचरण करते हैं।
ग्रन्थ में जैन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग वैदिक ऋषियों के मुख से भी हुआ है। उदाहरण के लिए उद्दालक ऋषि के अध्ययन में स्वयं के लिए त्रिगुप्ति से गुप्त, त्रिदण्ड से विरत, निःशल्य, अगारव, चतुर्विधकथा से वर्जित, पाँच समितियों से समित, पाँच इन्द्रियों से संवृत, नवकोटि परिशुद्ध, उद्गम, उत्पादना एवं एषणा के दोषों से रहित विशेषणों का प्रयोग हुआ है।
इसिभासियाई वस्तुतः एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है, जिसको पढ़कर मेरे मन में जो भाव उठे हैं, उन्हें प्राकृत गाथाओं में प्रस्तुत कर रहा हूँ।
मणोमेहरिसिओजाओपढिऊणइसिभासियाइं। रिसीणांवयणाणिएयम्मि, सोहन्तिसुद्धभावेण।। जइणा बोद्धामाहणायरिसिओभवन्तिअरहता। अज्झत्तदोसनिवारणाय, उवएसाउवओगिणो।। संपदायाभिनिवेसस्स, भावणातत्थवज्जिआ। सम्मादिट्ठीए भवइ सम्मं, सव्वंभणितंअज्जरिसीहिं।।